🔹 प्रकाश हिंदुस्तानी 🔹
सुरखी (Surkhi ) विधानसभा क्षेत्र की तुलना अगर किसी क्षेत्र से की जा सकती है, तो वह है सांवेर (Sanver) विधानसभा क्षेत्र । सांवेर के भाजपा प्रत्याशी तुलसी सिलावट (Tulsi Silawat) की तरह ही गोविंद सिंह राजपूत (Govind Singh Rajpoot) भी पहले कांग्रेस में थे और अब वे भारतीय जनता पार्टी (BJP)में शामिल हो चुके हैं और विधानसभा उपचुनाव में उम्मीदवार हैं। सांवेर में जैसे प्रेमचंद गुड्डू (Premchand Guddu) पहले भाजपा में थे, उसी तरह पहले सुरखी से कांग्रेस प्रत्याशी पारुल साहू (Parul Sahu) 2013 में भाजपा के टिकट पर विधायक थीं।
गोविंद राजपूत का जन्म जन्माष्टमी के दिन हुआ था। इसीलिए माता-पिता ने नाम रखा गोविंद। गोविन्द सिंह राजपूत छात्र जीवन से राजनीति कर रहे हैं। 1998 से कांग्रेस की तरफ से सुरखी से विधानसभा में कांग्रेस के उम्मीदवार बने। लेकिन भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार से चुनाव हार गए। उन्हें प्रदेश युवा कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया गया। वे चार साल तक इस पद पर रहे। राजपूत माधवराव सिंधिया के सहयोगी रहे और उन्हें ही अपना राजनीतिक अभिभावक मानते रहे। 2001 में माधवराव सिंधिया का हेलीकॉप्टर दुर्घटना में उनका निधन हो गया। इसके बाद माधवराव सिंधिया के पुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया को अपना मेंटर बना लिया। 2003 में उन्हें फिर से विधानसभा का टिकट मिला और वे 13 हजार से ज्यादा वोटों से चुनाव में जीत गए। 2003 में गोविंद सिंह राजपूत के सामने उम्मीदवार थे भाजपा के दिग्गज प्रत्याशी भूपेंद्र सिंह। वह उमा भारती की धुंआधार हवा का दौर था, लेकिन गोविन्द सिंह राजपूत जीत गए। इस चुनावी हार के बाद भूपेंद्र सिंह ने चुनाव क्षेत्र बदलकर खुरई सीट कर लिया। इसके बाद 2008 के चुनाव में गोविन्द सिंह राजपूत ने राजेंद्र सिंह मोकलपुर को चुनाव में हराया। मोकलपुर भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता थे। 2013 में भारतीय जनता पार्टी ने पारुल साहू को टिकट दिया। पारुल साहू जीत गई। जीत का अंतर 200 वोट से भी काम रहा।
2013 में पारुल साहू का चुनाव संचालन 2008 में गोविंद राजपूत से हारने वाले राजेंद्र सिंह मोकलपुर ने किया था। 2014 में गोविंद सिंह राजपूत को कांग्रेस ने सागर लोकसभा से प्रत्याशी बनाया था। उस वक्त मोदी लहर चल रही थी। गोविंदसिंह राजपूत को हार का सामना करना पड़ा। 2018 में भारतीय जनता पार्टी ने पारुल साहू को टिकट नहीं दिया। भारतीय जनता पार्टी ने सुधीर यादव को टिकट दिया। यादव को गोविंद सिंह राजपूत ने हरा दिया।
पारुल साहू के पिता संतोष साहू सागर जिले के बड़े शराब ठेकेदार थे। वे पहले ही कांग्रेस के सहानुभूति रखते थे लेकिन कांग्रेस ने उन्हें कोई तवज्जो नहीं दी। उन्होंने पाला बदल लिया। भारतीय जनता पार्टी में चले गए। टिकट मांगा था लेकिन उन्हें टिकट नहीं दिया। 2013 में भारतीय जनता पार्टी ने संतोष साहू की जगह उनकी बेटी पारुल साहू को टिकट देना पसंद किया और पारुल साहू टिकट पा चुनाव में खड़ी हुई और विजयी हुई।
पारुल साहू से गोविंद सिंह राजपूत की कोई प्रतिस्पर्धा या दुश्मनी नहीं थी। 2013 में चुनाव के बाद राजपूत विपक्ष में थे। एक बार एक चुनावी सभा में उन्होंने यह कह दिया था कि यह दारू वाली एमएलए हैं। दारू कभी पुरानी नहीं पड़ती। जितनी पुरानी होती है, उतनी ही मजेदार होती है। दारू की कोई एक्सपायरी डेट नहीं होती। पारुल ने इसे मुद्दा बना दिया।राजपूत के खिलाफ देशव्यापी मोर्चा खड़ा कर लिया । पारुल साहू ने गोविंद राजपूत के बयान को महिलाओं के सम्मान से जोड़ दिया। उन्होंने देशभर में गोविंद राजपूत के खिलाफ अभियान चलाए।
2013 में पारुल साहू ने उम्मीदवारी घोषित होने के एक महीने के भीतर ही चुनाव जीत कर दिखा दिया था। इस बार भी जब वह टिकट मिला, उसके 48 दिनों के भीतर ही उन्होंने पूरे सुरखी क्षेत्र में अपने पक्ष में बड़ा जबरदस्त माहौल तैयार कर लिया। वे महिला होने के नाते मतदाताओं के घरों में चली जाती हैं और रसोईघर में जाकर भी मतदाताओं से संपर्क कर लेती हैं। वे अपने चुनाव क्षेत्र में स्कूल संचालित करती हैं। ईस्ट लंदन यूनिवर्सिटी से एमबीए की पढ़ाई करनेवाली पारुल पर्वतारोही हैं और दुनिया के सबसे ऊँचे पर्वत माउंट एवरेस्ट की चोटी तक चढ़ चुकी हैं।
सुरखी की सीट भी सांवेर की तरह हाई प्रोफ़ाइल सीट है। यहाँ भी सिंधिया और कमलनाथ की प्रतिष्ठा दांव पर है।
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