बिगड़े ट्रैफिक, नकारा सिस्टम और खत्म होती मानवता के शिकार हुए बापनाजी .!

  
Last Updated:  February 13, 2019 " 11:34 am"

इंदौर: दो दिन पहले { 11 फरवरी } वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र बापना की सड़क हादसे में मौत की खबर ने सभी को हिला दिया। ये ऐसी घटना नहीं है जिसे नियति का खेल समझकर भुला दिया जाए। उनकी मौत कई सवाल खड़े करती है। देखा जाए तो शहर के बिगड़े हुए ट्रैफिक ने बापनाजी की जान ली। हालात ये हो गए हैं कि सुबह उठकर कामकाज के लिए निकला किसी का पिता, पति, भाई अथवा रिश्तेदार रात को सही सलामत घर पहुंच जाए इसकी कोई गारंटी नहीं रह गई है। सिस्टम तो इतना नकारा हो गया है की बिगड़े ट्रैफिक को सुधारने की बजाय केवल सड़क सुरक्षा सप्ताह की रस्म अदायगी कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता है। दिनभर शहर के प्रमुख चौराहों पर जाम लगता रहता है। सुबह और शाम के समय तो हालात और विकट हो जाते हैं।समुचित ट्रैफिक नियंत्रण के अभाव में वाहन चालक इधर- उधर से गाड़ी निकालने का प्रयास करते हैं और हादसे का शिकार हो जाते हैं। ऐसा नहीं है कि ट्रैफिक और थानों की पुलिस सड़कों पर नजर नहीं आती। शाम होते ही चौराहों पर चेकिंग के नाम पर वसूली का खेल शुरू हो जाता है। वसूली और चालानी कार्रवाई में पुलिस इतनी व्यस्त हो जाती है कि बद से बदतर होते ट्रैफिक की ओर उसका ध्यान ही नहीं जाता। लोग जाम में फंसकर परेशान होते रहते हैं।

रोड पर अतिक्रमण..

रिंग रोड हो या बीआरटीएस दोनों पर यातायात का भारी दबाव रहता है। कहने को तो इन दोनों प्रमुख मार्गों पर सर्विस रोड भी बने हुए हैं लेकिन उनपर दुकानदारों, खोमचेवालों और फेरीवालों का कब्जा रहता है। जाम में फंसा वाहन सर्विस रोड से निकलना भी चाहे तो संभव नहीं हो पाता। बड़े शो रूम और मॉल्स संचालकों ने तो सर्विस रोड पर ही पार्किंग बना रखी है। ट्रैफिक पुलिस हो या नगर निगम कोई भी सड़क से ये अवैध कब्जे हटाने की तत्परता नहीं दिखाता।
जिस पीपल्याहाना चौराहे के पास वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र बापनाजी की हादसे में जान गई वह अतिव्यस्त चौराहों में शुमार होता है। यहां ब्रिज निर्माण की कवायद के चलते ट्रैफिक की हालत बेहद खराब है। रही- सही कसर अतिक्रमण और सोमवार को लगने वाला हाट बाजार पूरी कर देता है। ट्रैफिक को व्यवस्थित करने के लिए पुलिस का कोई पुख्ता इंतजाम यहां नहीं होता। ड्यूटी पर जवान होते भी हैं तो वे सिर्फ खानापूर्ति करते दिखाई देते हैं।

लोग नहीं करते नियमों का पालन…

ये कहना कि नकारा सिस्टम ही बिगड़े ट्रैफिक और बढ़ते हादसों के लिए जिमेदार है, सही नहीं है। लोग भी इसके लिए कम दोषी नहीं हैं। सिग्नल तोड़ना और ट्रैफिक नियमों की धज्जियां उड़ाना लोग अपनी शान समझते हैं। कहीं से भी कैसे भी निकलकर आगे बढ़ जाएं इसी जुगाड़ में वाहन चालक लगे रहते हैं। बड़ी तादाद ऐसे वाहन चालकों की है जो रॉंग साइड वाहन ले जाकर अपनी और सामने से आ रहे वाहन सवार की जिंदगी को खतरे में डालते हैं। इसका नजारा देखना हो तो एमजी रोड पर खड़े हो जाइए। बड़ा गणपति से गांधी हाल तक का इसका हिस्सा वनवे में आता है पर कोई भी इसका पालन नहीं करता। चौराहों पर चालान काटने में मुस्तैदी दिखानेवाले पुलिस जवान रॉन्ग साइड घुसने वाले वाहनों की ओर झांकते तक नहीं है। नो पार्किंग और बीच सड़क पर वाहन खड़े कर देना हमारी आदत में शुमार हो गया है। व्यवस्था को दोषी ठहराने में हम पीछे नहीं रहते पर यातायात नियमों का पालन करने में हमें दिक्कत होती है।

हेलमेट पहनने में अरुचि क्यों..?

शहर में बढ़ते हादसों का एक बड़ा कारण दो पहियाँ वाहन चालकों द्वारा हेलमेट का उपयोग नहीं करना है। ज्यादातर हादसों में दुपहियां वाहन सवार की जान सिर में चोट लगने से जाती है। फिर भी लोग हेलमेट पहनना नहीं चाहते। दस बार चालान कटवा लेते हैं पर हेलमेट नहीं पहनने के दस बहाने ढूंढ लेते हैं।

मर चुकी है संवेदनाएं…!

15-20 साल पहले तक इंदौर शहर में कोई घटना- दुर्घटना हो भी जाती थी तो आस- पास मौजूद लोग पीड़ित की मदद करने दौड़ पड़ते थे। समय के साथ हमारा अपना शहर कब बेगाना हो गया पता ही नहीं चला। महानगर में तब्दील होते हमारे शहर आबादी तो कई गुना बढ़ गई, शिक्षा और रोजगार की तलाश में बाहर से लाखों लोग यहां आकर बस गए पर इस शहर की आत्मीयता और एक-दूसरे की मदद करने का जज्बा कहीं गुम हो गया। शायद यही कारण है कि पीड़ितों की मदद को हमेशा तत्पर रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र बापनाजी को जब जरूरत थी तब उनकी मदद के लिए कोई आगे नहीं आया। हादसे में घायल बापनाजी के सिर से खून बह रहा था, उन्हें तत्काल अस्पताल पहुंचाना जरूरी था। मौके पर पहुंचे पत्रकार साथी लोगों से गुहार लगाते रहे पर किसी ने अपनी गाड़ी नहीं रोकी। मदद करने की बजाए लोग वीडियो बनाने और फ़ोटो खींचने में मशगूल रहे। यहां तक कि वहां मौजूद पुलिस कर्मी ने भी किसी वाहन को रोककर बापनाजी को अस्पताल भिजवाने की जहमत नहीं उठाई। करीब आधे घंटे बाद भोपाल से आ रहे एक शख्स ने मानवता दिखाई और अपनी गाड़ी से बापनाजी को एमवाय अस्पताल पहुंचाया पर तब तक देर हो चुकी थी। ये समूचा घटनाक्रम सुनकर तो यही लगा कि लोगों में मानवता शेष नहीं बची है। संवेदना के नाम पर हम शून्य होते जा रहे हैं। कोई ये समझने को तैयार नहीं है कि विपत्ति कभी भी किसी पर भी आ सकती है।
बापनाजी की इसतरह हुई मौत के बाद एक पत्रकार और इंदौरी होने के नाते मन में दबी पीड़ा और आक्रोश इस आलेख के जरिये बाहर आ गया। ऐसी तो कभी नहीं थी हमारे शहर की तासीर। अगर पुलिस प्रशासन और तमाम इंदौरी मिलकर प्रयास करें तो शहर के बिगड़े ट्रैफिक को पटरी पर लाकर हादसों में असमय छीन जाने वाली कई जिंदगियों को बचाया जा सकता है। क्या ऐसा हो सकेगा ये बड़ा सवाल है।

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