कैंसर फिर जीत गया, एक मीठी आवाज हार गई…

  
Last Updated:  December 31, 2021 " 05:17 pm"

*संजय पटेल*

आधी रात को नींद टूटी तो सोचा ज़रा वॉट्स एप्प सन्देश चैक कर लिए जाएं। पहली ही ख़बर गहन दुःख में डुबोने वाली थी। विवेक वाघोलिकर नहीं रहे!

कैंसर फिर जीत गया; एक मीठी आवाज़ हार गई। 80 के दशक में जब विवेक सांस्कृतिक परिदृश्य पर उभरे तब उन्हें परवाज़ मिली आकाशवाणी इन्दौर के सुगम सङ्गीत प्रसारणों से। रेडियो के लिए उन्होंने न केवल गीत-ग़ज़ल-भजन गाए बल्कि कुछ बेजोड़ कम्पोज़िशन्स भी किए। स्थायी रोजगार के लिए वे शहर के हेलन केलर दृष्टिहीन विद्यालय से जुड़ गए। वहाँ के दृष्टिहीन बाल-कलाकारों को उन्होंने बेहतरीन तैयारियां करवाई और कई प्रतियोगिताओं में सुयश दिलवाया। लेकिन इस काम से उनके भीतर का गायक कुलबुलाता रहा। उन्होंने मुम्बई-पुणे का रुख़ किया। वहाँ प्रमिला दातार के फेमस शो ‘ ‘सुनहरी यादें’ में ख़ूब तालियाँ बटोरी। न जाने क्या हुआ, फिर अपने शहर इन्दौर लौट आए। गाना-बजाना शुरू किया जो उनका एकमात्र पैशन-प्रोफेशन था।

सन 2000 के बाद विवेक वाघोलिकर को इन्दौर के मंचों ने ख़ूब प्रतिसाद, प्रसिद्धि और शोहरत दी। उत्कर्ष, रंग ए महफ़िल, वनबंधु परिषद, सुर-वन्दन के मजमों में वे छाने लगे। पहले रफ़ी, किशोर, महेंद्र कपूर, मन्ना डे सभी के गीत गुनगुनाते थे लेकिन जैसे ही उन्होंने मुकेश का जॉनर पकड़ा; सिद्धि और प्रसिद्धि उनके चरण चूमने लगी। विवेक वाघोलिकर मुकेश के गीतों के लिए पुणे तक याद किए गए। बाहर से आकर इन्दौर में सारे जॉनर्स के गायक आते-तालियां-पैसा-शोहरत बटोर ले जाते लेकिन मुकेश के गीतों के लिए इन्दौर को कभी कोई आर्टिस्ट आयात करने की ज़रूरत नहीं पड़ी।

2005 के बाद एक अफ़लातून सिलसिला इन्दौर में शुरू हुआ जिसका नाम था ओटला। विवेक वाघोलिकर इसके स्थायी स्तम्भ बने। इस जाजम पर कभी न गाने वाले लेकिन सङ्गीत से प्रेम करने वाले लोग प्रत्येक रविवार को एकत्र होते और फिल्मी गीत गुनगुनाते। विवेक तो गाते ही; अमेच्योर सिंगर्स का मार्गदर्शन भी करते। सुभाष-सर्वेश खण्डेलवाल और मेहुल गाँधी की ये बिछात इन्दौर में चित्रपट सङ्गीत प्रेम का अदभुत सिलसिला बनी। ज़िन्दगी को स्थायित्व देने की दृष्टि से उन्होंने बतौर सङ्गीत प्राध्यापक सिका स्कूल में सेवाएं दी।

संगीतप्रेमी मेहुल गाँधी विवेक वाघोलिकर से गाना सीखते भी थे और उन्हें गुरूजी कहते। यह भक्ति इतनी गहन थी कि जब भी विवेक गाते ; मेहुल भाई अपनी चिर-परिचित काली शर्ट में सभागार की दीवाल के सहारे खड़े-खड़े पूरा शो सुनते। एक बार मैंने कारण पूछ ही लिया तो जवाब मिला हमारे गुरूजी खड़े-खड़े गाते हैं संजू भाई तो मैं बैठकर कैसे सुन सकता हूँ? कोरोना में मेहुल भाई बिछड़ गए। लगता है विवेक भाई को इसका अंदरूनी भी आघात लगा।

विवेक वाघोलिकर को चित्रपट सङ्गीत की विलक्षण सूझ थी। मेरी बड़ी इच्छा थी कि वे गायन के अलावा अटेंजमेंट भी शुरू करें। मैं कई कलाकारों को मशवरा देता था कि फ़िल्म संगीत एक आग का दरिया है इसके लिए किसी मेंटर का होना अनिवार्य है। जब कोई पूछता वो कौन हो सकता है तो मैं हमेशा कहता विवेक वाघोलिकर!

मैंने विवेक भाई को मंच पर परिधान के प्रति भी जागरूक किया; एक दिन फ़ोन आया भैया बताइए मेरे लिए क्या ड्रेस ठीक रहेगी; मैंने कहा पार्टीवियर कुर्ते लीजिए और कुछ जैकेट्स। अगले शो में ख़रीद लाए और मिलते ही तपाक से बोले ‘देखिए आपका कहना मान लिया’

बहरहाल! अब बातें बाक़ी हैं। कैंसर के बाद विवेक भाई ने वापसी भी की थी। कहते थे अब फिर शोज़ जमेंगे। शहर के कई आयोजकों/संगीतप्रेमियों ने मिलकर वाघोलिकर को सह्रदयता से आर्थिक सहयोग भी दिया पर इस रोग की विकरालता के आगे सब थम गया। सांस थम गई-आवाज़ ख़ामोश हो गई।
मुकेश को परफेक्ट सूत-सावल (न तोला उधर-न माशा इधर) में गाने वाले बेजोड़ गायक की तलाश के लिए अब हमारे कान तरसते ही रह जाएंगे।

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