सावरकर को भारतरत्न : तर्क, वितर्क और कुतर्क

  
Last Updated:  November 20, 2019 " 05:14 pm"

इंदौर : (प्रकाश हिंदुस्तानी) महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में विनायक दामोदर सावरकर को भारत रत्न दिलाने का मुद्दा घोषणा पत्र में लिखे जाने के बाद से ही सावरकर पर चर्चाएं तेज़ हो गई । भारत के स्वाधीनता संग्राम में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है, जिसने दो-दो बार काला पानी की सजा पाई हो। दोनों बार यह सजा आजीवन मिली थी। न ही इतिहास में कोई ऐसा स्वाधीनता सेनानी दर्ज़ है, जिसके परिवार की संपत्ति अंग्रेज़ों ने 6-6 बार कुर्क की हो और न ही इतिहास में कोई ऐसा स्वाधीनता सेनानी दर्ज़ है, जिसमें एक ही परिवार के दो भाइयों को एक ही जेल में रखा गया हो और वे 12 साल तक एक-दूसरे की शक्ल भी नहीं देख पाए हों। जो बलिदानी भारत माता के लिए अंडमान की जेल में कोल्हू के बैल की तरह 10 साल तक जुटा रहा, जिसने जेल की दीवारों पर भारत माता की स्मृति में नाखून और पत्थर से कविताएं लिखी, जो बलिदानी अपने जीवन के महत्वपूर्ण 26 साल जेल में बिताने पर भी उद्वेलित नहीं हुआ, जिस क्रांतिकारी ने जाति प्रथा के खिलाफ लड़ाई लड़ी, अंधविश्वासों के खिलाफ युद्ध किया। जिसने हमेशा साहित्य, भारतीयता और मातृभूमि की रक्षा को बल दिया, जिसने पढ़ाई करने के बाद भी बैरिस्टर की डिग्री इसलिए नहीं ली कि उन्हें इसके लिए ब्रिटेन की महारानी के नाम पर शपथ पत्र पर हस्ताक्षर करने थे और उन्होंने इससे इनकार कर दिया था।

प्रकाशन से पहले ही किताब कर दी थी प्रतिबन्धित।

विनायक दामोदर सावरकर दुनिया के ऐसे लेखक थे, जिनकी किताब को प्रकाशन से पहले ही दो देशों ने प्रतिबंधित कर दिया था। उनकी यह किताब 1857 में हुई भारतीय क्रांति के बारे में थी। विदेशी वस्त्रों की होली जलाने वाले वे पहले भारतीय नेता थे। वे पहले ऐसे स्वाधीनता सेनानी थे, जिन्होंने पूर्ण स्वतंत्रता को भारत के स्वतंत्रता संग्राम का लक्ष्य घोषित कर दिया था। इतना ही नहीं वे ही थे, जिन्होंने भारत के राष्ट्र ध्वज तिरंगे के बीच में सफेद पट्टी पर धर्म चक्र लगाने का सुझाव दिया था, जिसे राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने स्वीकार किया और भारतीय तिरंगा इस स्वरूप में आ पाया। अब मीडिया में इस बात पर बहस हो रही है कि क्या सावरकर के नाम के आगे वीर लिखा जाना चाहिए या नहीं। आरोप यह है कि वे हिन्दुत्ववादी नेता थे और महात्मा गांधी की हत्या के 8 आरोपितों में से एक थे। गांधीजी की हत्या के छठें दिन उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था, लेकिन कुछ ही महीनों में उन्हें रिहा कर दिया गया, क्योंकि उनके खिलाफ कोई भी दोष साबित नहीं हुआ। सावरकर अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकने के लिए हिंसक तरीके अपनाने से भी नहीं चूकते थे। 3 अंग्रेज़ अधिकारियों की हत्या या हत्या की कोशिशों में वे शामिल थे।

शहीद मदनलाल ढींगरा को रिवाल्वर सावरकर ने दी थी…!

सावरकर का नाम पहली बार 1909 में हत्या के मामले में सामने आया था, जब क्रांतिकारी मदनलाल ढींगरा ने सर विलियम कर्ज़न वाइली की लंदन में गोली मारकर हत्या कर दी थी। वाइली लंदन के इंडिया हाउस में सचिव थे। ढींगरा इसके पहले भारत के पूर्व वायसराय लॉर्ड कर्ज़न और बंगाल के पूर्व गवर्नर ब्रमफील्ड फुलर को मारने की योजना बना रहे थे। ये दोनों अंग्रेज़ अधिकारी लंदन में जिस कार्यक्रम में शामिल होने वाले थे, वहीं ढींगरा अपने काम को अंजाम देते, लेकिन किन्हीं कारणोंवश ढींगरा को वहां पहुंचने में देर हो गई और ये दोनों अंग्रेज़ अधिकारी बच गए। मदनलाल ढींगरा ने फिर योजना बनाई और वाइली को गोली मारकर उसका का काम तमाम कर दिया। मदनलाल ढींगरा पकड़े गए और उन्हें फांसी की सजा हुई। इस मामले में सावरकर पर भी शक की सुई थी, लेकिन उनके खिलाफ कोई भी मज़बूत सबूत नहीं थे। सावरकर उस मामले में बच गए। पूरी दुनिया को इस मामले में जब पता चला, जब सावरकर की मृत्यु के बाद उनकी जीवनी प्रकाशित हुई और उसमें उन्होंने वाइली की हत्या में अपनी भूमिका स्वीकार की थी। सावरकर की जीवनी लेखक धनंजय कीर ने दावा किया कि मदनलाल ढींगरा को हत्या वाले दिन सावरकर ने ही रिवाल्वर दी थी और कहा था कि यदि तुम इस बार असफल हो गए, तो मुझे अपना चेहरा मत दिखाना। सावरकर ने ही ढींगरा को महीनों तक रिवाल्वर चलाने की ट्रेनिंग दी थी।

दो मामलों में मिली थी कालापानी की सजा।

सावरकर अपनी कानून की पढ़ाई करने के लिए ब्रिटेन गए थे। वहां जाने के पहले उन्होंने मित्र मेला नाम का एक गुप्त संगठन बना रखा था। इस संगठन का काम था भारत की आज़ादी के लिए अंग्रेज़ों को खत्म करना और अंग्रेजी शासन को तहस-नहस कर देना। इसी संस्था में विनायक के बड़े भाई गणेश उर्फ बाबा राव भी सदस्य थे। बाद में इस संस्था का नाम अभिनव भारत रखा गया था। एक बार अंग्रेज़ पुलिस ने सावरकर के बड़े भाई गणेश को गिरफ्तार किया, तो उनके पास से बमों का ज़खीरा पकड़ा गया। 8 जून 1909 को गणेश को काला पानी की सजा दी गई थी। गणेश के साथियों ने इसका बदला लेने की योजना बनाई और उन्हीं में से एक अनंत कन्हेरे ने 29 दिसम्बर 1909 को नासिक के कलेक्टर ए.एम.टी. जैक्शन की गोली मारकर हत्या कर दी। इस हत्याकांड के बाद कन्हेरे को गिरफ्तार कर लिया गया। उनके पास से जो पत्र बरामद हुए, उनसे पता चला कि इस हत्या में इस्तेमाल होने वाली ब्राउनिंग पिस्टल और उस जैसी ही 20 और पिस्टल सावरकर ने ही भारत भिजवाई थी। इसी के आधार पर सावरकर के नाम एक वारंट लंदन भेजा गया। 13 मार्च 1910 को सावरकर को गिरफ्तार कर लिया गया और फिर बाद में भारत लाया गया।
सावरकर के खिलाफ दो मामले थे और दोनों ही संगीन थे। अंग्रेज़ कलेक्टर जैक्शन की हत्या और अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह। अंग्रेजी शासन की कोर्ट ने एक साल में ही फैसला सुना दिया और दोनों ही मामलों में अलग-अलग आजीवन काला पानी की सजा सुनाई गई। तब आजीवन कारावास का मतलब होता था 25 साल की जेल। इस हिसाब से सावरकर को 50 साल काला पानी की जेल में रहने की सजा सुनाई गई थी। इस हिसाब से 28 साल के सावरकर को 78 साल की उम्र तक जेल में रहना था। वह भी ऐसी जेल में जिसे काला पानी कहा जाता है। अंडमान की सेल्युलर जेल में सावरकर को 4 जुलाई 1911 को भेज दिया गया। उस जेल के हालात नारकीय थे। काला पानी की सजा अंग्रेज़ों द्वारा दी जाने वाली सबसे भयावह और बर्बर सजा थी। वहां एक ऐसी कोठरी में सावरकर को ठूंसा गया, जो इतनी छोटी थी कि उसमें लेटा नहीं जा सकता था। 10 से 12 घंटे रोज़ कोल्हू में जोता जाता था। दैनिक कर्म के लिए भी बेड़ियां नहीं खोली जाती थी और केवल 3 बार ही नित्यकर्म किया जा सकता था। कई कैदी अपनी कोठरी में ही नित्यकर्म कर देते थे, जिससे पूरी जेल बदबूदार हो गई थी। सावरकर को ऐसी कोठरी दी गई थी, जिसके ठीक सामने मृत्यु दंड पाए कैदियों को फांसी पर लटकाया जाता था और वह दृश्य वे खुद बिना रुकावट के देख सकते थे। कानून के जानकर, लेखक, अंग्रेजी हुकूमत का तरीका समझने वाले सावरकर ने पाया कि वे अकेले ही नहीं थे, जिन्हें यह सजा दी गई थी, ऐसे अनेक क्रांतिकारी थे।

नाखूनों, पत्थरों से खुरचकर जेल की दीवारों पर किया लेखन।

सावरकर को जेल में पढ़ने के लिए कोई सुविधा नहीं थी, न ही वे कुछ लिख सकते थे, क्योंकि वहां कागज़ और कलम उपलब्ध नहीं थी। पत्थर के टुकड़ों की नोंक से और नाखूनों से खुरच-खुरचकर उन्होंने जेल की कोठरी की दीवारों पर अपना लेखन कार्य किया। एक अनुमान के अनुसार उन्होंने उन दीवारों पर करीब 10 हजार पृष्ठ की सामग्री लिखी थी। यह उन्होंने दस साल में लिखा था, जिसमें कविताएं और उनके विचार थे। वे पढ़-पढ़कर उन्हें रट लेते थे और फिर दीवार की पुताई के बाद उसे नए कागज़ के रूप में उपयोग में लाते थे। 1911 में काला पानी की सजा पाए कुछ कैदियों ने ब्रिटिश सरकार के सामने एक याचिका दाखिल की, जिसमें कहा गया था कि उन्हें काला पानी के बजाय किसी और भारतीय जेल में शिफ्ट कर दिया जाए। इस याचिका पर कोई विचार नहीं हुआ। 14 नवंबर 1913 को उन्होंने इसी तरह की दूसरी याचिका भेजी। इसमें उन्होंने लिखा कि वे अंग्रेजी सरकार द्वारा उठाए गए कई सुधारात्मक कदमों का समर्थन करते हैं। इसलिए अब वे हिंसा का रास्ता छोड़ देना चाहते हैं। वे भटके हुए युवाओं को मुख्यधारा में लाना चाहते हैं। इस याचिका पर भी अंग्रेज़ सरकार ने कोई सकारात्मक फैसला नहीं दिया, लेकिन जेल में उनकी स्थिति थोड़ी बेहतर हो गई, उन्हें दिया जाने वाला शारीरिक दंड कुछ कम हो गया।

रणनीति के तहत लिखे पत्र।

एक-एक करके 6 आवेदन सावरकर ने करीब 10 साल में दिए। सावरकर अपने इन पत्रों को यह कहकर जायज़ ठहराते थे कि अगर वे ऐसी रणनीति नहीं बनाएंगे, तो उन्हें काल कोठरी में ही पूरी जिंदगी बितानी पड़ेगी और वे चाहकर भी देश के लिए कोई काम कभी नहीं कर पाएंगे। अंडमान की काला पानी की जेल में मरने से बेहतर है शिवाजी की रणनीति के अनुसार कदम उठाना और अपने लक्ष्य को पूरा करना। करीब 10 साल काला पानी की सजा भुगतने के बाद सावरकर को पुणे की यरवदा जेल में शिफ्ट करने के लिए अंग्रेजी सरकार राजी हो गई, लेकिन अंग्रेजी सरकार की शर्ते थी कि सावरकर को बिना अनुमति जिले के बाहर जाने की छूट नहीं होगी। वे निजी रूप से भी किसी राजनीतिक गतिविधि में भाग नहीं लेंगे। न ही कोई सार्वजनिक कार्यक्रम में जा सकेंगे। ये तमाम शर्ते 5 साल के लिए थी और इन्हें आगे भी 5-5 साल करके बढ़ाया जा सकता था। सावरकर के अनुसार उन्होंने कूटनीति का परिचय देते हुए शर्ते मान ली थी। 4 साल बाद ही 1925 में रंगीला रसूल नाम से एक किताब प्रकाशित हुई। इस किताब की वजह से पूरे देश में तनाव का माहौल बन गया था। इसके बाद सावरकर ने एक लेख लिखा, जिसमें स्वराज का जिक्र किया था। अंग्रेज़ सरकार की आपत्ति के बाद सावरकर को सफाई देनी पड़ी, लेकिन वे रिहाई का जीवन जी रहे थे। 22 जुलाई 1931 को मुंबई के प्रभावी गवर्नर सर अर्नेस्ट हॉटसन पुणे आए थे। इसी दौरान उन पर दो गोलियां चलाई गई। संयोग से वे दोनों गोलियों से बच गए। सावरकर का संबंध इस गोली बारी से भी जोड़ा जाता है। जनवरी 1948 में महात्मा गांधी की हत्या की दो कोशिशें हुई थी। 20 जनवरी को पंजाबी शरणार्थी मदनलाल पाहवा ने गांधीजी की हत्या की कोशिश की थी, लेकिन पाहवा असफल रहा।
30 जनवरी को नाथूराम गोडसे अपने कृत्य में सफल हुआ, जिसमें 8 लोग आरोपी थे। नाथूराम गोडसे और उनके भाई गोपाल गोडसे, नारायण आपटे, विष्णु करकरे, मदनलाल पाहवा, शंकर किष्टैया और दत्तात्रेय परचुरे, इसका एक और सदस्य था दिगम्बर रामचंद्र बड़गे, जो सरकारी गवाह बन गया और बड़गे की ही गवाही पर सावरकर का नाम इस मामले से जुड़ा। अदालत में बड़गे ने जो बयान दिए, उनकी कड़ियों को आपस में जोड़ पाना संभव नहीं हुआ और सावरकर इस मामले में छूट गए। गोडसे ने कहा कि वह सावरकर के नेतृत्व को पहले ही छोड़ चुका है और न तो उनसे सलाह लेता है, न बात करता है। नाथूराम गोडसे सावरकर के प्रति काफी सम्मान दिखाता रहा, लेकिन सावरकर का तर्क था कि मार्गदर्शक या शिष्यों के हर काम के लिए गुरू को दोषी नहीं कहा जा सकता। सावरकर गांधीजी की हत्या के मामले में बरी हो गए। मार्च 1965 में न्यायमूर्ति जे.एल. कपूर की अध्यक्षता में एक आयोग गठित हुआ, जिसका काम था महात्मा गांधी की हत्या की साजिश कब रची गई थी यह जानना। कपूर आयोग ने सावरकर को निर्दोष नहीं पाया। सावरकर कभी भी आरएसएस या हिन्दू महासभा से नहीं जुड़े रहे, लेकिन दो बार काला पानी की सजा के कारण उन्हें वीर सावरकर कहा जाने लगा था। सावरकर के नाम के आगे वीर शब्द वैसे ही जुड़ गया है, जैसे गांधी के आगे महात्मा। सावरकर को महान देशभक्त और महान क्रांतिकारी लिखा जाने लगा है। यहां तक कि राजस्थान के स्कूली पाठ्यक्रम में सावरकर पर एक पाठ भी पढ़ाया जाता है। अशोक गेहलोत की सरकार आने के बाद सरकार ने वह पाठ तो नहीं हटाया, लेकिन जहां-जहां सावरकर के पहले वीर शब्द लिखा था, उस शब्द को हटा दिया।

सावरकर पढ़ने में हमेशा मेधावी रहे। उन्होंने अभिनव भारत जैसी क्रांतिकारी संस्था भी बनाई, जिसमें बंगाल के विभाजन के बाद पुणे में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई थी, वे बहुत मुखर वक्ता थे। 1906 में बाल गंगाधर तिलक ने उन्हें श्यामजी कृष्ण वर्मा छात्रवृत्ति की सिफारिश की थी, जिस पर वे 1906 में पढ़ाई के लिए ब्रिटेन गए थे, वहां उन्होंने इंडियन सोशलॉजिस्ट, तलवार, युगांतर आदि में नियमित लेखन शुरू किया। 1908 में उनकी किताब इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस तैयार हो गई। इसके प्रकाशन में उन्हें बहुत मुश्किलें आई थी। बाद में यह किताब हॉलैंड से प्रकाशित हुई और फ्रांस पहुंचाई गई। 1909 में उन्होंने लंदन से बार एट लॉ की परीक्षा पास की, लेकिन बैरिस्टर की डिग्री उन्होंने नहीं ली। यहीं पर उनकी मुलाकात लाला हरदयाल से हुई थी, जो उन दिनों लंदन के इंडिया हाउस की देखरेख करते थे। वाइली की हत्या के बाद उन्होंने लंदन टाइम्स में एक लेख भी लिखा था, इसके बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। 8 जुलाई 1910 को उन्हें गैरकानूनी रूप से गिरफ्तार करके भारत लाया जा रहा था। तभी वे पानी के जहाज में से बाथरूम में से समुद्र में कूदकर फरार हो गए थे और तैरते हुए समुद्र तट पर पहुंच गए थे। वे वहां राजनैतिक शरण चाहते थे, लेकिन वह उन्हें नहीं मिली।

26 फरवरी 1966 को सावरकर की मृत्यु हुई। उनकी मृत्यु इस मामले में विलक्षण थी कि जब उनके शरीर के कुछ अंगों ने काम करना बंद कर दिया, तब उन्होंने स्वत: ही दवाइयां खाना बंद कर दिया। साथ ही भोजन और जल का भी त्याग कर दिया। उनकी अवधारणा मृत्यु के बारे में यह रही कि मैंने अपना जीवन जी लिया है। मेरे जीवन का लक्ष्य पूरा हो गया। अब मेरे जीने का कोई उद्देश्य नहीं है। सावरकर का विरोध इसलिए भी होता है कि वे उग्र हिन्दुत्व के समर्थक थे। भारत के राष्ट्रीय तिरंगे ध्वज में भगवा रंग की हिमायत वे करते रहे। सावरकर ने जो भी किया हो वह उन्होंने अपने निजी लाभ के लिए नहीं किया, न ही अपने परिवार के फायदे के लिए उन्होंने कोई अभियान चलाया। अंग्रेज़ों की जेल से रिहाई के बाद उन्होंने कोर्ट में कहा था कि अगर आप मुझे सार्वजनिक जीवन में नहीं जाने देंगे, तब मेरी आजीविका कैसे चलेगी। मेरे खाने और रहने का खर्च कौन उठाएगा? तब न्यायालय में अंग्रेजी हुकूमत ने कहा था कि अगर हम किसी को भी गतिविधि से रोकते हैं, तो उसके रहने खाने की जिम्मेदारी हमारी होती है। इसी आधार पर उन्हें 60 रुपये महीना मिलने लगा था। अपने जीवन के आखिरी दिन उन्होंने काफी गुमनामी में बिताए। ऐसे महान योद्धा को भारत रत्न मिले, तो इस पर आपत्ति का कोई आधार नज़र नहीं आता।

सावरकर को भारतरत्न मिलने से ‘भारतरत्न’ गौरवान्वित होगा।

आज़ादी के बाद अब तक 48 लोगों को भारत रत्न की उपाधि से सम्मानित किया जा चुका है। देश का एक बड़ा वर्ग मानता है कि सावरकर को भारत रत्न दिया जाना चाहिए। सन 2000 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने भारत रत्न के लिए सावरकर के नाम का प्रस्ताव भी रखा था, लेकिन किन्हीं कारणोंवश नहीं मिल पाया। अब महाराष्ट्र में चुनाव संपन्न हो चुके हैं ऐसे में सावरकर को भारत रत्न देने से किसी पार्टी का फायदा होने वाला नहीं है। भारत का पहला सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को मिला था। भारत छोड़ो आंदोलन में उनकी कोई भूमिका नहीं थी, न ही वे कभी जेल गए थे। बाबा साहब आम्बेडकर भी आज़ादी की लड़ाई में सक्रिय नहीं थे। वे ब्रिटिश वायसराय की कैबिनेट में सदस्य भी रहे। गांधीजी की जिद के कारण ही आम्बेडकर संविधान बनाने वाली समिति के अध्यक्ष बने। अब तो भारत रत्न अनेक पूर्व राष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों, कलाकारों आदि को मिल चुका है, लेकिन सावरकर जैसा बलिदान शायद ही किसी ने किया हो। ऐसे बलिदानी को भारत रत्न मिलने पर भारत रत्न खुद ही गौरवान्वित होगा।

(वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश हिंदुस्तानी के इस तथ्यात्मक लेख से आजादी के बाद से ही वीर सावरकर को लेकर जो भ्रांतियां और गलत धारणाएं फैलाई जा रही हैं वे दूर हो सकेंगी ऐसी उम्मीद है।)

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