अभय जी के अवसान से विदा हुआ विचारवान और शालीन पत्रकारिता का सिलसिला

  
Last Updated:  March 25, 2023 " 07:41 pm"

🔹संजय पटेल🔹

(कला समीक्षक और संस्कृतिकर्मी)

बाबू लाभचंद छजलानी ने चालीस के दशक में जिस भावना से अपने अख़बार नईदुनिया का बिरवा रोपा था उसे भरापूरा वृक्ष बनाने में राहुल बारपुते, राजेन्द्र माथुर, रनवीर सक्सैना और अभय छजलानी की भूमिका बिसराई नहीं जा सकती। 23 मार्च को अभय जी के अवसान के साथ ही वह नईदुनिया परम्परा भी विराम पर आ गई जिसकी चर्चा विचारवान और शालीन पत्रकारिता नर्सरी के रूप में पूरे देश में होती थी। बेशक अभय जी उसके क़ाबिल बाग़बान थे। ये अलग बात है कि बीते चार बरसों से वे ख़ासे अशक्त हो गए थे और अलज़ाइमर जैसे असाध्य रोग से निजात नही पा सके। हिन्दी पत्रकारिता की सात दहाइयों का जो भरापूरा कालखण्ड उनके मानस में दर्ज था वह भी लगभग विस्मृत हो गया था। एक समर्थ पत्रकार और सशक्त संपादक के रूप में उन्होंने जिस तरह की भूमिका निभाई वह इसलिए अविस्मरणीय है कि उसमें इन्दौर जैसे शहर के लिए हर लम्हा अविरल स्नेह और चिंता प्रवाहित होती रहती थी। ऐसा कहने वाले भी मिल जाएंगे कि उन्होंने समाज सेवा के क्षेत्र में सक्रिय रह कर अपने रिसाले की क़ामयाबी का वितान रचा लेकिन सच ये है कि उनके समय के नईदुनिया या स्वयं अभय जी को इस सबका कोई अतिरिक्त लाभांश नहीं मिला। ये बात भी चर्चित थी कि अभय जी को मुख्य अतिथि बनाकर बुला लो तो नईदुनिया में शानदार कवरेज मिल जाता है। इस बात को सच मान भी लें तो बताइये अभय जी या नईदुनिया को इससे क्या कमर्शियल लाभ मिला होगा? वह समय ऐसा था जब समाचार कवरेज के लिए विज्ञापन का कल्चर प्रारंभ नहीं हुआ था। हकीकत यह है कि उन्हें सामाजिक हलचलों की रसप्रियता थी। यह तथ्य भी नकारा नहीं जा सकता कि शहर के तमाम आयोजनों की शिरकत उन्हें इन्दौर में चल रही खेल, सामाजिक,राजनीतिक, व्यापारिक और अख़बारी सरगर्मियों के अंडर करंट से अपडेट करती रही। उनके समय में सोश्यल नेटवर्किंग का अस्तित्व नहीं था सो अपने व्यक्तिगत सोश्यल नेटवर्क से ही वे शहर का तापमान नाप लेते थे और उसी से अख़बार की स्याही का फ़्लेवर भी तय करते।

अभय जी की अंत्येष्टि के उपरांत हुई शोकसभा में वरिष्ठ पत्रकार श्रवण गर्ग ने सही कहा कि अब हमें महसूस होगा कि इन व्यक्तित्वों के जाने के बाद विचार और पत्रकारिता के स्तर पर हमने क्या-क्या खोया है। अभय जी जैसे विचारवान व्यक्तित्वों के अवसान के नुकसान का जायज़ा तो वाक़ई समय ही ले सकेगा क्योंकि देखते-देखते पत्रकारिता जगत और इन्दौर के सामाजिक परिदृष्य पर ऐसी पीढ़ी सक्रिय हो चली है जिसने प्रिंट मीडिया को मंज़र ए आम से अप्रासंगिक होते देखा है। यह जनरेशन छपे समाचार के स्वाद से बेख़बर है और तत्काल परिणाम और तेज़ रफ़्तार की शैदाई है।

बहरहाल, अभय छजलानी का जाना हिन्दी पत्रकारिता की उन पताकाओं का ओझल हो जाना है जिसके साए में समाचार, संपादन, न्यूज़ वैल्यू, भाषा के संस्कार और तेवर के चर्चे थे। लिखी हुई पंक्तियों के बोलबाले थे और लिखने वालों के जलवे। इसमें कोई शक नहीं कि जब भी हिन्दी पत्रकारिता में गरिमा और शालीनता का लेखा-जोखा होगा उसमें एक वरेण्य अख़बारनवीस के रूप में अभय छजलानी का नाम नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकेगा।

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