‘वक़्त और मैं’
आज और कल में मेरा सब बीत गया
जो कभी पीछे मुझसे था
वो भी मुझसे जीत गया।
हार का दंश मुझे अंदर से निचोड़ रहा था
मेरे सपनों का महल फिर भी आगे खड़ा था।
एक पल को सोचा हार मान लूँ
पर जब गुज़रे रास्ते की दूरी देखी
तो लगा कि ख़ुद में थोड़ी और जान डाल दूँ।
फिर शुरू किया है मैंने सफ़र एक और बार
इस बार मंज़िल ख़ुद कर रही है मेरा इंतज़ार।
वक़्त के इम्तिहान भी क्या लाजवाब हैं
तब वक़्त की कद्र न की हमने
और आज वक़्त के साथ साथ मेरे पाँव हैं।
‘कीर्ति सिंह गौड़’
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