इंदौरियों ने बता दिया वे पीड़ित मानवता के आंसू पोंछने में भी नम्बर वन हैं..

  
Last Updated:  May 16, 2020 " 02:55 pm"

इंदौर : (राजेंद्र कॉपरगांवकर) बीते कुछ दिनों से मीडिया का हर माध्यम प्रवासी मजदूरों से जुड़ी खबरों से भरा पड़ा है। खासकर महाराष्ट्र व गुजरात से छोटे- छोटे बच्चों के साथ चिलचिलाती धूप में हजारों किलोमीटर दूर अपने घरों के लिए पैदल निकल पड़े इन हजारों मजदूरों की पीड़ा वाकई द्रवित करने वाली थी। यूपी, बिहार के ये मजदूर मुम्बई, नासिक सहित महाराष्ट्र व गुजरात के बड़े शहरों में मजदूरी करते थे। कोरोना संक्रमण के चलते किये गए लॉकडाउन के कारण उनकी रोजी रोटी छीन गई। वे जहां थे वहीं फंस गए। कुछ दिन तो उन्होंने गुजारा कर लिया पर लॉकडाउन के बढ़ते दायरे के कारण उनकी जमा पूंजी खत्म हो गई और वे भुखमरी की कगार पर आ गए। मकान मालिक ने किराया मांगना शुरू कर दिया। पेट भरने का ठिकाना नहीं था तो किराया कहां से देते। जब आशियाना छूटने की नौबत आ गई तो अपना थोड़ा बहुत सामान समेटकर बीवी, बच्चों के साथ चल पड़े हजारों किलोमीटर दूर यूपी, बिहार स्थित अपने घरों की ओर। जिसके पास जो साधन था, उससे वह चल पड़ा, पर हजारों लोग ऐसे थे जिनके पास अपना कोई साधन नहीं था। लॉकडाउन के कारण न तो ट्रेनें चल रहीं थीं और न ही कोई अन्य वाहन। ऐसे में पैदल चलना उनकी मजबूरी बन गई।

रास्ते में नहीं मिली मदद..।

हजारों किलोमीटर लंबाई की सड़कें नापते हुए गंतव्य के लिए निकल पड़े इन हजारों मजदूरों के पास कुछ ही दिन की खाने की सामग्री थी। वो खत्म हो गई तो फाके की नौबत आ गई। कई मजदूरों और उनके बच्चों के पैरों में चप्पलें तक नहीं थी। आग बरसाती धूप में नंगे पैर चलने से पैरों में छाले पड़ने लगे, फिर भी चलते रहना उनकी मजबूरी थी। थक जाते तो कहीं बैठकर थोड़ी देर सुस्ता लेते, उसके बाद फिर चल पड़ते थे। पेट भरने के लिए कुछ बचा नहीं था तो पानी पीकर ही काम चलाया। हैरत की बात तो ये रही कि उनकी न तो सरकारों ने और न ही राजनीतिक दलों, नेताओं और गैर सरकारी संगठनों ने कोई सुध ली।

देवदूत बनकर आए मप्र व इंदौर के बाशिंदे..

भूख और गर्मी से बेहाल इन मजदूरों को महाराष्ट्र व गुजरात जैसे सम्पन्न प्रदेशों में तो कोई मदद नहीं मिली और न ही उनके अपने गृह राज्य यूपी और बिहार की सरकारों से, पर मप्र और खासकर इंदौर के लोग उनके लिए देवदूत बनकर आए। मप्र की सीमा में कदम रखने के बाद जैसे ही लोगों को इन प्रवासी मजदूरों की बदहाली, दुःख, दर्द और भूख के बारे में पता चला, वे दौड़े चले आए। जिसकी जो क्षमता थी, उसने वो मदद करना शुरू कर दिया। बाद में कई सामाजिक संगठन भी मैदान में आ गए और प्रवासी मजदूरों वो सब मुहैया कराया, जिसकी उन्हें दरकार थी।

इंदौर के लोगों ने मेहमानों की तरह की खातिरदारी।

प्रवासी मजदूरों के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब इंदौर के बायपास से गुजरते समय कदम- कदम पर लोगों ने घर आए मेहमान की तरह उनकी खातिरदारी की। कोई चाय- बिस्कुट बांट रहा था तो कोई कुरकुरे, चिप्स और अन्य खाद्य सामग्री के पैकेट, कई सामाजिक, धार्मिक और व्यापारिक संगठनों ने तो बायपास पर ही डेरा जमा लिया और गर्मागर्म भोजन बनाकर प्रवासी मजदूरों को खिलाना शुरू कर दिया। उन्हें आगे की यात्रा के लिए भोजन के पैकेट भी दिए जाने लगे। इंदौर में कहा जाता है कि मां अहिल्या की इस नगरी में कोई भूखा नहीं सोता, इस बात को लोगों ने चरितार्थ कर दिखाया। बात सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं रहीं। पीड़ित मानवता के इस महाअभियान में विभिन औद्योगिक संगठन, कारोबारी व राजनीतिक दल भी जुड़ गए। 32 किलोमीटर के बायपास पर प्रवासी मजदूरों की मदद करने की जैसे होड़ मच गई। भोजन के अलावा खिचड़ी, फल फ्रूट, पेयजल की बोतलें और यहां तक कि उन्हें जूते चप्पलें भी वितरित की गई, ताकि सड़क पर चलते हुए उनके पैर न जलें। बाद में इंदौर का जिला प्रशासन, नगर निगम व अन्य सरकारी विभाग भी सक्रिय हुए। नगर निगम ने प्रवासी मजदूरों के विश्राम, भोजन और पेयजल की व्यवस्था की तो प्रशासन ने सिटी बसों के जरिए उन्हें इंदौर जिले की सीमा तक छुड़वाने का इंतजाम किया।

भावविभोर हुए प्रवासी मजदूर, बोले इंदौर जैसा अपनापन कहीं नहीं मिला।

इंदौर में मिले अपनत्व, स्नेह, खातिरदारी और तमाम जरूरतों की पूर्ति होने से प्रवासी मजदूर खुश होने के साथ इमोशनल हो गए। उनका कहना था कि मप्र और खासकर इंदौर में उनकी खातिरदारी की गई उसे वे कभी नहीं भूलेंगे। इंदौर वासियों ने परिवार के सदस्य की भांति उनकी मदद की। उनकी हर जरूरत को पूरा किया। यहां आकर पता चला कि आज भी मानवता जिंदा है।

इंदौर की असली तासीर यही है।

अपनी पूरी टीम के साथ प्रवासी मजदूरों की हरतरह से मदद करने में अग्रणी भूमिका निभाने वाले बीजेपी के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने कहा कि पीड़ित मानवता की सेवा करना इंदौर के लोगों की खासियत है। यही मां अहिल्या की नगरी का असली चरित्र है।

बहरहाल, प्रवासी मजदूरों के दर्द, पीड़ा और तकलीफ को तो खूब हाइलाइट किया गया पर उनकी पीड़ा हरने के लिए जुटे देवदूतों के बारे में बताने की जरूरत किसी ने नहीं समझी। इंदौर के बाशिंदों ने बता दिया कि वे केवल स्वच्छता में ही नम्बर वन नहीं हैं बल्कि इंसानियत और पीड़ित मानवता के आंसू पोंछने में भी नम्बर वन हैं।

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