🔹कीर्ति सिंह गौड़🔹
वो मटका बनाती है
जब चक्के पर गीली मिट्टी का ढेर लगाती है।
वो मिट्टी में आँसू मिलाकर अपनी
पीड़ा भी उसमें गूँथ जाती है
कभी बर्तन तो कभी दिये बनाती है,
जब वो चक्के पर गीली मिट्टी का ढेर लगाती है।
वो मसल रही है मिट्टी में अपने सपनों को,
तंगहाली में पाल रही है अपनों को,
वो चक्के पर ख़ुद को
ढालने की जुगत रोज़ लगाती है,
जब वो चक्के पर गीली मिट्टी का ढेर लगाती है ।
छोटे-छोटे ख़्वाबों में वो रात बिताती है,
जैसे गीले बर्तनों को वो आँच दिखाती है,
कच्चे मिट्टी के बर्तन आग में पकाती है,
जब वो चक्के पर गीली मिट्टी का ढेर लगाती है।
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