इंदौर प्रेस क्लब के चाय पर चर्चा में बोले पद्मश्री से सम्मानित तीनों कबीर गायक।
🔺कीर्ति राणा इंदौर।🔺
यह एक तरह से दुर्लभ संयोग ही था कि कबीर की वाणी को देश दुनिया में पहुंचाने वाले तीन गायक एक मंच पर थे।14 वर्ष के अंतराल में इन तीनों कबीर गायकों को भारत सरकार पद्मश्री सम्मान भी प्रदान कर चुकी है।कबीर को जन जन तक पहुंचाने वाले इन तीनों गायकों प्रह्लाद सिंह टिपानिया, कालूराम बामनिया और भेरु सिंह चौहान दशकों से कबीर और कबीर समान अन्य संतों की वाणी को जन जन तक पहुंचा रहे हैं ।इन तीनों लोक गायकों का इतने साल का अनुभव यही है कि मानव समाज भटक चुका है।कबीर को समझ ही नहीं पा रहा है।कबीर को गाने-गुनगुनाने, सीडी सुन लेने से ही कुछ नहीं होगा। जरूरी तो यह है कि उनकी वाणी को महसूस किया जाए।समाज कबीर को सुनता तो है लेकिन उनके संदेश को जीवन में अपनाना नहीं चाहता।
इन तीनों कबीर गायकों को चाय पर चर्चा में इंदौर प्रेस क्लब ने आमंत्रित किया था।तीनों ने एकमत से स्वीकारा कि मालवी बोली का यह पुण्य प्रताप ही है कि हमने कबीर को मालवी में ही गाया और इसी कारण पद्मश्री सम्मान भी मिला। यह सम्मान हमारी गायकी से ज्यादा मालवी बोली, हमारे श्रोताओं का है।ये जो कुछ भी मान-सम्मान है मालवा की सौगात है।मालवी लोक भाषा में जब गांवा तो दक्षिण भारत में या अन्य देश में कोई इस बोली को भले ही ना समझे लेकिन श्रोता गले लगा लेते हैं। अमेरिका में प्रोग्राम था श्रोताओं में जवान लड़कियां भी थीं जब गले मिलीं तो अचकचा गया। उनका कहना था दो सौ साल के इतिहास में पहली बार आप के गाये गीतों ने हमारे मन को छुआ है। उस अनुभूति को व्यक्त कर पाना मुश्किल है।
टिपानिया का कहना था, कबीर को गाने वालों को कौन कितना ओब्लाइज करता है।कुमार गंधर्व जी ने भी देवास जाने से पहले कहां गाया कबीर को। संत कबीर की अति आवश्यकता है आज देश को। जनसेवक तो बहुत हैं लेकिन कबीर की बातों को अमल में लाने वाले कितने हैं। चुनाव लड़ा, नहीं जीता, अनुभव मिला। सब कुछ छोड़ सकता हूं लेकिन कबीर गायन नहीं छोड़ूगा। मैं जिस मुकाम तक पहुंचा हूं, समाज परिवार-मीडिया का बहुत योगदान है।
कभी सोचा नहीं था…!
महू के भेरु सिंह चौहान का कहना था कभी सोचा नहीं था, इतना सम्मान मिलेगा। पद्मश्री क्या होता है यह भी पता नहीं था।कबीर गायन पर पद्मश्री मिलना मेरे लिये ही नहीं देश की भी बड़ी उपलब्धि है। रात में मेरे बड़े बाबूजी, पिताजी, गेंदा काका, धोला काका, नंदू भील, अलाव जला कर हुक्का पीते और पिताजी तंबूरे पर भजन गाते थे। गांव में तब ना बिजली थी ना हैंडपंप । मैं तो बच्चा था, तंबूरा लाकर देता, मंजीरे बजाता। मुझे तो परंपरा में मिला गायन। पहले बाबा रामदेव महाराज के भजन गाते थे। फिर कबीर साहब के भजन अच्छे लगने लगे। 15 साल की उम्र में तंबूरा बजाने लगा। गांव गांव जाते बस से, साइकल से, रामापीर, गोरखनाथ के भजन गाते रहे।हमारे आश्रयदाता तो सुरेश पटेल हैं। जबलपुर में पहला कैसेट बना, मार्केट में हलचल मची।मैं रामा पीर के भजन रिकार्ड कराने गया था, संतुष्टि नहीं मिली। फिर से गया तो लौटते में एक्सीडेंट हो गया। चार महीने बिस्तर पर पड़ा रहा। ये अवार्ड आप सब का है।
आज पूरा एक महीना एक दिन हो गया है। उस रात 11 बजे फोन आया, बार बार पूछा भेरु सिंह बोल रहे हो।कबीर के भजन आप ही गाते हो। मैंने पूछा क्या बात है, मेरे बेटे से बात कराई तो बताया कि भारत सरकार बड़ा अवार्ड दे रही है। न्यूज आने वाली है, टीवी के सामने बैठ जाना आप का नाम आएगा। उस रात पता चला कि पद्मश्री दे रहे हैं। तब से शायद ही कोई दिन गया हो जब बधाई के फोन, सम्मान का सिलसिला चल रहा है।
देवास के कालूराम बामनिया का दर्द ।
बामनिया ने यह अनुरोध किया कि मालवी मीठी बोली है। हम जहां भी जाते हैं वहां के लोग अपनी क्षेत्रीय बोली में बात करते हैं लेकिन हम मालवी बोलने में क्यों शर्म महसूस करते हैं।
यह भी दुख है कि इतने सालों बाद भी लोग कबीर को समझ नहीं पा रहे हैं। कबीर जाति के नासूर का शिकार हो रहे हैं।इन संतों ने जाति-धर्म-पंथ आदि से ऊपर उठने, मानव मात्र से प्रेम का संदेश अपने भजनों में, साखियों में, गुरुवाणी में दिया है लेकिन समाज ने तो इन संतों को ही जातियों में बांटने का काम किया है।आज संत भी जाति के मुताबिक देखे जाते हैं।
कबीर अकादमी स्थापित हो।
तीनों कबीर गायकों टिपानिया, बामनिया और चौहान का कहना था जैसे उज्जैन में कालिदास अकादमी स्थापित है उसी तरह कबीर अकादमी स्थापित की जानी चाहिए।अपने स्तर पर हम कबीर यात्रा, कबीर महोत्सव आयोजित कर रहे हैं लेकिन सरकार को हर जिले में कबीर उत्सव आयोजित करना चाहिए। कबीर गायकी परंपरा को समृद्ध करने के लिये कुछ करना चाहिए।
पद्मश्री से कब -कौन हुआ सम्मानित ।
2011 : प्रह्लाद सिंह टिपानिया को भारत सरकार द्वारा पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया।वे दुनिया में लोकगायक के रूप में पहचान बना चुके हैं।
2024 : देवास के कालूराम बामनिया को पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वे खेती हर मजदूर हैं। प्रशंसक उन्हें मालवा का कबीर’ भी कहते हैं।
2025 : महू तहसील के छोटे से गांव बजरंगपुरा के भैरू सिंह चौहान को पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उन्हें पिता मादू चौहान से गायन विरासत में मिला है।
पर्दे के पीछे हैं डॉ. सुरेश पटेल ।
सुरेश पटेल एक ऐसा नाम है जो कबीर का संदेश लोक गायकों के माध्यम से जन जन तक पहुंचाने का काम पर्दे के पीछे रह कर 90 के द़शक से कर रहे हैं। तब टिपानिया जी संकोची-नए गायक थे । एकलव्य मंच (देवास) में कबीर भजन हर महीने की दो तारीख को होता था। वहां डॉ. पटेल ने पहले टिपानिया का गायन कराया, सफलता मिलती गई, तीन चार सौ भजन मंडलियां आने लगीं।
उनका कबीर से जुड़ाव कैसे हुआ? सुरेश पटेल ने बताया जबलपुर में नानाजी के यहां कबीर पंथ के संत आते थे।वो सब मेरी स्मृति में था। जबलपुर के उस गांव तगरा में कार्यक्रम आयोजित किया, टिपानिया जी को गायन के लिये बुलाया। जनसहभागिता से दीवारों पर अंधविश्वास मिटाने वाले नारे लिखे। कहानीकार ज्ञानरंजन उस समारोह के अतिथि थे। मीडिया ने खूब सहयोग किया। टिपानिया जी कैसेट क्या होता है यह नहीं जानते थे। उनका पहला कैसेट ‘कबीरा सोई पीर..’ निकाला। दस भजनों वाले इस कैसेट की ढाई लाख बिक्री हो गई। तब से कबीर जनप्रिय होते गए। कबीर पर किताबें लिखी और यह सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन बन गया। लोक गायकों को प्रोत्साहित करता हूं हम गहराई से काम कर रहे हैं, निरंतर कबीर यात्राएं निकाल रहे हैं।अब महिलाओं को भी जोड़ लिया है। कुछ समय में महिला कबीर गायिका भी मंच पर दिखेंगी। कबीर की बातें संविधान सम्मत हैं इसलिये मैं इस काम से लोगों को निरंतर जोड़ने, लोक गायकों को मंच प्रदान करने, आमजन से परिचय कराने का काम बिना किसी चाहत के वर्षों से कर रहा हूं।