इन्दोरी चलन पर लिखी इस रचना का उद्देश्य किसी की भावना को ठेस पहुंचाना ना होकर मनोरंजन मात्र है। भाषा की अशुद्धियाँ भी जानी बूझी स्थानीय बोली अनुसार है।
इन्दोरी पठ्ठा, [ जी ठीक पहचाना आपने। हर इन्दोरी किसी ना किसी का पठ्ठा अवश्य ही होता है ] बाकि सब सहन कर सकता है लेकिन अकेला रहना उसे किसी हालत में मंज़ूर नि। और इसीलिए करेला और नीम चढ़ा की तर्ज़ पर, कोरोना और लॉक डाउन वाला, उसे किसी कीमत पर रास नि आ रहा। उठावने- भंडारे में जीने वाले इन्दोरी, कर्फ्यू में घर बैठने वालों में से है भी नि । लाक डाउन की घोषणा के बाद भी रंग पंचमी पर जुलुस निकालने वाले इन्दोरी हो या जनता कर्फ्यू का जश्न राजवाड़े पर मनाने वाला इन्दोरी, उसे जब तक जश्न मनाने नि मिले वह मानता नि। भले ही वह घर में खड़े रह कर थाली घंटी बजाने का ही जश्न हो। लेकिन पेलवान यहाँ जो पुलिस है वह भी इन्दोरी ही है। यही की इस्टाइल में ऐसी ऐसी जगह डंडे का भंडारा करवाती है की घर रह कर भी बैठने के लायक नि रहते भिया।
यहां के अधिकारी भी बड़े झांकी बाज है हाँ । कोरोना क्या फैला पी. पी. इ. किट पहन कर झांकी बाजी करने में वह लोग भी पीछे नि है…….. हाँ तो ड्यूटी दे रहे है उसे सेल्यूट लेकिन जहाँ जरुरत नि है वहां भी किट पहन कर झांकी जमाने का क्या तुक ?
ख़ैर , ये सब तो बीती बातें हो गयी अब तो भिया चिंता यह है की इस दौर में कोइ निपट नि जाए , हाँ ……….. ना तो शव यात्रा में जाने मिलता है ना उठवाने में। नुक्ता होना तो बहुत दूर की बात है। कुछ खोडले कंजूस लोगों को तो बहाना ही मिल गया है पैसे बचाने का। पूछो तो कहते है अरे यार बुढ्ढा -बुढ्ढी ने वैसे ही भोत खर्चा करा दिया है। अब भगवान् ने ही हमें पैसा बचाने का मौका दिया है तो क्यों नि बचाये ?
खैर , ये तो हुई एक अल्लग बात लेकिन मै आप से जो दर्द शेयर करने बैठा हूँ वो अल्लग ही है , दो तरफ़ा। मरने वाले की मैयत या अंतिम यात्रा में शामिल होने का ओर शोक सभा या उठावना आदि करने का। दूसरी बात ये है कि, इस दौर में मरने वाला भी दुःखी। मज़ा ही नि आता उसे।
दरअसल बात क्या है भिया……… इंदौर में अंतिम यात्रा में शामिल होने का भी ‘अल्लग ही मज़ा’ है।
चार लोग होण के सामने ज्ञान पेलने का इससे बढ़िया मौक़ा नि होता। निपटने वाले [ मृतक ] के घर में अर्थी बनाने से लेकर तो श्मशान में चिता पर लकड़ी रखने और सलटे हुए भिया के सर और पैर किधर रखना है ,इसे लेकर जो ज्ञान तबियत से परोसा जाता है…….. मतलब भन्नाट होता है एकदम। और जुलम तो पेलवान तब होता है जब दो ग्यानी एक अंतिम यात्रा में हो। फिर तो भिया, आपका भगवान् ही मालिक है।अने भिया वो जब शोक सभा होती है उसका तो तुम पूछो ही मत। अपनी संस्कृति में क्या है भिया, कपाल क्रिया के पेले घर तो जा नि सकते, तो टाईम पास के लिए शोक सभा का फेसन चल रिया है। और पेलवान वां मुर्दे के [ मेरा मतलब मृतक ] बारे में जो कुछ- कुछ बोला जाता है तो जलते-जलते, वो भी बोल पड़ता है कि मत बोलो अब, कुछ -कुछ होता है।हां नि तो, तेरी बारा की तेरा मारुं, पेले इत्ता बोला होता तो मैं मरता ही नी बे।
और अब मरने वाले का दुःख भी सुन लो भिया। उसका सबसे पेला इंट्रेस्ट मरने में ये होता है कि सालो ने जीते जी तो साथ दिया नि, देखता हूँ शव यात्रा में कित्ते आते हैं। और अब जैसा की इंदौर में फेसन है तो अंतिम यात्रा में घर पर भले ही कम लोग हो ,किन्तु शमशान के गेट पे तो भारी भीड़ जुट ही जाती है। तब वहां तक सुस्त सा आया मुर्दा भी अंदर ऐसे अकड़ के जाता है कि मज़ा ही आ जाये।
पर सच कूँ भिया ! मरने वाले का असली इंट्रेस्ट तो शोक सभा में ही होता है। वो क्या है , जिंदगी भर गाली खाये इंसान को बस इसी एक जगो तारीफ़ मिलने का पक्का भरोसा होता है। और अहाहा………आये हुए लोग होण भी क्या क्या केते हैं इस मौके पर , समाज सेवी ,माता पिता की सेवा करने वाला ,मिलनसार ,हर मुसीबत में खड़े रहने वाला……… और जुलुम की इंतेहाँ तब हो जाती है जब उसका अपना बॉस कहता है, काम के प्रति सच्ची लगन वाला। साला जलते- जलते मुर्दा भी बोल ही पड़ता है, ‘ बस कर पगले , अब रुलाएगा क्या ?’
समाज के सभी कर्मवीर, जुझारू, युवा, ऊर्जावान, दयालू, और यशस्वी लोग होण की भावनाओं का ख्याल करते हुए अपन को तो एक अभियान चलाना ही पडेगा की लॉक डाउन जल्दी ख़त्म करो हां नि तो, ताकि अपने भंडारे, उठवाने और नुक़्ते चल्लू हो सके।
-*दिलीप* *लोकरे*
9425082194
(लेखक दिलीप लोकरे इंदौर के वरिष्ठ पत्रकार होने के साथ अच्छे थिएटर आर्टिस्ट भी हैं।)