{चंद्रशेखर शर्मा}क्या कमाल फाइनल रहा ये ! कहें तो इस पर हजार तरह के तब्सिरे मुमकिन हैं और नामुमकिन है कि कोई एक भी मुकम्मल निकले। सो बढ़िया ये है कि उन पूरे एक सौ दो ओवरों पर कोई रोशनी ही न डाली जाए और बेहतर होगा कि सब अपने-अपने सर्चलाइट के रोशन आनन्द से उसे निहारें, मजा लें। कैलिडोस्कोप का हिंदी तर्जुमा होता है बहुबिम्बदर्शी ! इसलिए कि उसमें बेशुमार बिम्ब होते हैं, दिखते हैं। बेशक उन सबकी अपनी लुभावन-सुहावन होती है। करोड़ों लोगों ने बीते रविवार को ये कैलिडोस्कोप देखा ! अपन ने भी, लेकिन अपने मन में कुछ और है।अपना मन ये कहता है कि फर्ज कीजिए टूर्नामेंट के उस मैच में अपन ने यानी टीम इंडिया ने इंग्लैंड को हरा दिया होता और पाकिस्तान बाहर न हुआ होता। आगे फर्ज कीजिए कि इंग्लैंड बाहर होता और अपने-अपने सेमीफाइनल जीतकर भारत और पाकिस्तान फाइनल में होते। फिर यही का यही यानी सेम टू सेम डबल टाई और कमाल का फाइनल इन दोनों टीम में होता ! यहां आगे पढ़ना बंद करके जरा कल्पना कीजिए कि तब पाकिस्तान जीत जाता तो हिंदुस्तान में क्या चीखोपुकार का आलम होता ? सुनते हैं कि भारत सेमीफाइनल में न्यूजीलैंड से हारा तो कश्मीर में आतिशबाजी की गई थी और जश्न मना ! सो तब पता नहीं देश में क्या होता। इसके उलट फर्ज कीजिए वो फाइनल भारत जीतता तो ? तब देश छोड़िए और सोचिए हमारे राजवाड़ा पर पूरी रात क्या आलम होता ? तब शायद देश में और राजवाड़ा पर लॉ एंड आर्डर के हालात नहीं बन जाते ? जाहिर है ये कल्पना की उड़ान है, लेकिन ये उड़ान भरो तो ये भी एक तरह का कैलिडोस्कोप है, जिसमें तरह-तरह के एडवेंचर्स हैं ! सो तब्सिरे के बजाय अपन को तो रविवार के वास्तविक फाइनल के साथ इस काल्पनिक फाइनल का भी आनन्द लेना ज्यादा सूझा। सूझा कि इंग्लैंड हमसे तगड़ी टीम थी और उससे हारने का क्या दुःख मनाना था, लेकिन ये ठीक ही हुआ था कि पाकिस्तान बाहर हो गया था। दूसरी बात ये कि पूरे टूर्नामेंट में हम सिर्फ दो मैच हारे थे और जिन दो टीमों से हारे थे, वही फाइनल में थीं। उनमें से एक जीती, लेकिन जिस तरह का यादगार फाइनल हुआ, उसकी रौ में यदि दोनों को संयुक्त विजेता घोषित करते तो ये वर्ल्ड कप भी और यादगार नहीं हो जाता ? खैर।
दरअसल कहा जा रहा है कि नियम पहले से तय थे और यही कहते थे कि जिस टीम ने ज्यादा बॉउंड्री लगाई, वही विजेता होगा। जाहिर है कहना पड़ेगा कि फिर फाइनल में नियम जीते और खेल हारा। न्यूजीलैंड इस फाइनल में कहीं से कहीं तक खेल से नहीं हारा और न इंग्लैंड खेल से जीता। वो जीता तो बेहूदा और हास्यास्पद नियम से। सवाल है कि खेल की आत्मा और उद्देश्य क्या होता है और नियम क्यों बनाये जाते हैं ? जवाब है कि खेल की आत्मा होती है खेल भावना, जो कि सर्वोपरि होती है और खेल का अंतिम या एकमात्र उद्देश्य उस पवित्र खेलभावना को प्रतिष्ठित करना ही होता है। जाहिर है सारे नियम भी खेल की इस पूरी प्रक्रिया की पवित्रता को स्थापित करने के हेतु होते हैं। आप जानते होंगे कि हमारे आईपीएल में टूर्नामेंट के दौरान एक यह चार्ट भी बनता-चलता है कि कौनसी टीम कितनी खेलभावना से खेल रही है। बाकायदा टीमों को उसके अंक या पॉइंट दिए जाते हैं और उसे शायद फेयर प्ले अवॉर्ड कहा जाता है। सो क्या ये ठीक नहीं होगा कि वर्ल्ड कप जैसे खेल के चार सालाना महा आयोजन में, ऐसा डबल टाई फाइनल होने पर, विजेता टीम का फैसला ज्यादा बॉउंड्री लगाने वाली टीम के बजाय उस टीम के हक में हो, जिसने ज्यादा खेलभावना का प्रदर्शन किया हो ? बॉउंड्री का क्या है, कोई जरूरी नहीं कि सब बाउंड्री बल्लेबाजों ने ही लगाई हो। कई बार ये होता है कि गेंद को बैट छुआए बिना भी कई बॉउंड्री लगती हैं। फिर फाइनल में ही हमने देखा कि स्टोक्स को दो की जगह छह रन मिले। अब उसमें उनका खुद का क्या जहूरा था ? जाहिर है विजेता का फैसला करने का ये तरीका बेमतलब, बेजा और बेहूदा है। निश्चित रूप से आईसीसी को अपने नियमों की फिर पड़ताल करने की जरूरत है। हकीकतन निष्पक्षता की गरज से बने नियम अक्सर अपने चरित्र में जड़ और बहुत निर्मम होते हैं। हालांकि वो ऐसे तो किसी सूरत नहीं होने चाहिए कि उनकी नाक रखने के चक्कर में अन्याय किसी की नियति हो जाए। ब्लैक कैप्स शायद नियमों की इसी जड़ता और निर्ममता का शिकार हुए। ऐसा नहीं होना था। यदि दोनों को संयुक्त विजेता घोषित करने की कोई सूरत होती, क्योंकि अपवाद भी होते ही हैं, सो ऐसा होता तो बेशक इस महान खेल की महानता में और चार चांद ही लगते। इसके उलट शरीफों के इस खेल में नियम की बदमाशी ने दाग लगा दिया। वो अखरा।
लेखक चंद्रशेखर शर्मा वरिष्ठ पत्रकार और खेल समीक्षक हैं।