इंदौर : आम लोगों को साग-सब्जी, फल-फूल उपलब्ध कराने वाली मां शाकम्भरी देवी सकराय माताजी का रजत जयंती महोत्सव इस बार सोमवार, 13 जनवरी को बायपास स्थित सम्पत पैलेस, वैष्णो धाम मंदिर के पास मनाया जाएगा। महोत्सव का यह 25वां वर्ष है। महोत्सव की तैयारियां शुरू हो गई हैं। इस दौरान प्रसिद्ध परंपरागत तांडव आरती भी होगी। महोत्सव में सुबह से रात तक विभिन्न आयोजन होंगे। मालवांचल के विभिन्न शहरों के अनेक श्रद्धालु भी इस महोत्सव में अपनी मौजूदगी दर्ज कराएंगे।
आयोजन समिति की ओर से अध्यक्ष किशनलाल ऐरन, उपाध्यक्ष गोपाल अग्रवाल एवं ट्रस्टी अनिल खंडेलवाल ने बताया कि महोत्सव का शुभारंभ सुबह 9 बजे स्थापना पूजन के साथ होगा। 9.30 बजे मंडल पूजन, 10.30 बजे दुर्गा सप्तशती पाठ एवं 2.30 बजे से मां शाकम्भरी का मंगल पाठ होगा। सायं 6.15 बजे परंपरागत तांडव आरती एवं महाआरती तथा महाज्योत के दर्शन भी होंगे। शाम 6.30 बजे से कन्या पूजन के बाद 7 बजे से द्वारका मंत्री की भजन संध्या होगी। महोत्सव की दिव्यता को देखते हुए विभिन्न समितियों का गठन किया गया है, जिनमें गोपाल बंसल, रामप्रसाद सोनथलिया, जयेश ऐरन, राजेश खंडेलवाल, कल्याणमल खजांची, चंदू गोयल, मुकेश अग्रवाल, विलेश ऐरन सहित बड़ी संख्या में श्रद्धालु शामिल किए गए हैं।
कौन है शाकम्भरी देवी :-
शाकम्भरी देवी आदिशक्ति जगदम्बा का ही एक रूप है। कहीं इन्हें चार भुजाधारी तो कहीं अष्ट भुजाओं वाली देवी के रूप में पूजा जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार शाकम्भरी देवी को शताक्षी अर्थात सौ नेत्रों वाली देवी भी माना जाता है। महाभारत के वन पर्व में उल्लेख है कि शाकम्भरी देवी ने शिवालिक पहाड़ियों में सौ वर्ष तक तपस्या की थी। वे तप के दौरान माह में एक बार ही शाकाहारी आहार लेती थीं। उनकी कीर्ति सुनकर कुछ ऋषि जब उनके दर्शन के लिए गए तो उन्होंने भोजन के रूप में शाक परोसा तब से ही उन्हें शाकम्भरी कहा जाने लगा।
एक अन्य मान्यता है कि पृथ्वी पर भयानक सूखे के कारण ऋषि मुनियों ने देवी की आराधना की तब आदिशक्ति जगदम्बा ने शाकम्भरी के रूप में अपने शरीर से उत्पन्न शाक से ही संसार का भरण-पोषण किया। एक और प्रचलित कथा यह भी है कि पार्वती ने शिव को पाने के लिए कठोर तप किया था। तप के दौरान वे एक समय भोजन के रूप में केवल शाक-सब्जियां ही खाती थी इसलिए उनका नाम शाकम्भरी हो गया।
एक अन्य कथा के अनुसार एक दुर्गम दैत्य के पिता ‘रूरू’ के मन में विचार आया कि देवताओं की सारी शक्ति, जो वेदों में निहित है उनसे छीन ली जाए। यह विचार उसने अपने पुत्र के सामने रखा। दुर्गम ने अपने पिता की बात से सहमत होकर वेदों को पाने के लिए ब्रह्मा की आराधना शुरू कर दी। उसके कठोर तप से प्रसन्न होकर बह्मा ने असुर दुर्गम को चारों वेद देने के साथ-साथ देवताओं को परास्त करने का वरदान भी दे दिया। वेदों के असुर के पास जाते ही देवताओं का बल क्षीण हो गया। वेदों का ज्ञान उन्हें विस्मृत होने लगा और दैत्य दुर्गम के अत्याचार बढ़ने लगे तब अत्याचारों से त्रस्त देवता और ऋषि-मुनि जगदम्बा की शरण में गए तो प्रार्थना से प्रसन्न होकर देवी के शरीर से एक स्त्री रूपी तेज निकला, जिसके सौ नेत्र थे। देवताओं की व्यथा सुनकर उनके सौ नेत्रों से आंसू निकलने लगे, जो वर्षा के रूप में पृथ्वी पर गिरने लगे और पृथ्वी पर पहले की तरह हरियाली छा गई।