*अभिलाष शुक्ला*
चार माह से ज्यादा की ऊहापोह के बाद आखिरकार रुस ने यूक्रेन पर हमला बोल ही दिया।। दरअसल यूक्रेन, सोवियत संघ के विखंडन से पहले उसी का हिस्सा था। विखंडन के बाद भी रूस का ही प्रभाव अलग हुए सभी देशों पर रहा है। इस बीच नाटो के माध्यम से अमेरिका अपनी मंडली का विस्तार करता रहा है। दस देशों के समूह से शुरू हुए नाटो का यह विस्तार अब तीस देशों तक जा पहुँचा है और यूक्रेन नाटो का 31वाँ सदस्य बनने की राह पर था। अपने खेमे से यूक्रेन के अमेरिकी खेमे में जाने की हरकत रूस को बहुत नागवार लग रही थी। रूस ने नाटो देशों से आक्रमण न करने की यही शर्त रखी थी कि इस बात की गारण्टी दी जाए कि यूक्रेन को नाटो समूह में नहीं शामिल किया जाएगा, जो किसी ने नहीं दी।
ये महाशक्तियों की साम्राज्यवादी तथा विस्तारवादी नीतियों का द्वंद्व है जिससे अंततः पूरी दुनिया प्रभावित होगी। कौन जानता है कि वर्तमान पीढ़ी को भी तीसरे विश्वयुद्ध की विभीषिका का सामना करना पड़े। यह सही है कि रूस, भारत का सामरिक मित्र रहा है पर अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में देश के हितों के अनुसार मित्र तथा शत्रु बदलते रहते हैं। उसी मित्रता के आधार पर यूक्रेन ने भारत से हस्तक्षेप का अनुरोध किया था और फिर उनके राजदूत ने भारत के स्टैण्ड पर निराशा भी व्यक्त की है।
इन विषम परिस्थितियों में भारत की सबसे बड़ी उपलब्धि यही होगी यदि यूक्रेन में फँसे भारतीय सुरक्षित भारत वापस लौट आते हैं। इस पूरे वैश्विक तनाव के बीच चीन तटस्थ भूमिका में है क्योंकि भविष्य में इससे उसके व्यापार में आशातीत वृद्धि हो सकती है। बहरहाल, देखना यही है कि यह युद्ध कितना लंबा खिंचता है, हम तो इसे बस देख ही सकते हैं ।
(लेखक अभिलाष शुक्ला इंदौर के वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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