*राज राजेश्वरी क्षत्रिय*
रोज सुबह देखती हूँ
कभी पापा, कभी माँ, तो कभी दादी उन्हें लाती है
दरअसल स्कूलों में रोज बच्चे नहीं
बल्कि वलिदों की उम्मीदे आती है I
तेज़ बारिश, कडकडाती ठण्ड या
धुप उन्हें झुलसाती है,
हर हाल में बच्चा पहुंचे स्कूल,
बस यही एक चिंता उन्हें अलसुबह जगाती है,
दरअसल स्कूलों में रोज बच्चे नहीं
बल्कि वलिदों की उम्मीदें आती हैं।
भूखा ना रहे दिनभर बच्चा मेरा ,
इसी सोच के साथ सोने जाती है,
क्या कहें उस माँ को जिसके कुकर की सीटी
मुर्गे की बांग से पहले ही बज जाती है।
दरअसल स्कूलों में रोज बच्चे नहीं
बल्कि वलिदों की उम्मीदें आती हैं।
थककर आये पिता को जब बेटी
सामानों की पर्ची थमाती है,
अव्वल रहे प्रतियोगिता में बच्ची मेरी
यही आस उन्हें दौड़ाती है,
दरअसल स्कूलों में रोज बच्चे नहीं
बल्कि वलिदों की उम्मीदें आती हैं।
इम्तेहान की सर्द रातो में जब
बच्चे को नींद सताती है,
नाना कहते साथ जागूँगा
नानी तो खुद ही अलार्म बन जाती है,
दरअसल स्कूलों में रोज बच्चे नहीं
बल्कि वलिदों की उम्मीदें आती हैं।
अपने आज को वार के बच्चों पर,
इनकी आंखें कल के ख्वाब सजाती हैं,
दरअसल स्कूलों में रोज बच्चे नहीं
बल्कि वलिदों की उम्मीदें आती हैं।