एकीकृत सोवियत संघ का सपना देख रहे हैं पुतिन

  
Last Updated:  February 27, 2022 " 09:18 pm"

अभिलाष शुक्ला

रूस के साथ आमने-सामने के युद्ध में यूक्रेन कितना ठहर पाएगा, यह उन सभी लोगों को मालूम था जिनकी अंतरराष्ट्रीय गतिविधियों में दिलचस्पी है। एक समय सोवियत यूनियन और संयुक्त राष्ट्र अमेरिका विश्व की सबसे बड़ी शक्तियाँ थीं, जिनके बीच द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद कभी युद्ध तो नहीं हुआ परन्तु एक दूसरे के मोहरों को जरूर पीटते रहे। इसी प्रतिद्वंद्विता के कारण इन महाशक्तियों के मध्य तनाव को शीतयुद्ध का नाम दिया गया।
तब हम अखबारों में पढ़ते रहते थे कि सोवियत संघ की ताकत को कम करने के लिए अमेरिका की गुप्तचर संस्था सीआईए ने लगभग 30 साल के लंबे ऑपरेशन के बाद सोवियत संघ के राष्ट्रपति गोर्बाचोव के काल में दिनाँक 26 दिसम्बर, 1991 को सोवियत संघ को रूस सहित 15 राष्ट्रों में विखण्डित करने में सफलता पाई। धीरे-धीरे बचे हुए 14 राष्ट्रों में से अनेक राष्ट्र अमेरिका के प्रभाव वाले नाटो संगठन के सदस्य बन गए जो एक तरह से रूस को सीधी चुनौती थी।
यहाँ भी यूक्रेन नाटो का सदस्य बनना चाहता था। इस प्रकार धीरे-धीरे अमेरिका नाटो के माध्यम से अपने प्रभाव का विस्तार करता जा रहा था। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद विश्व के अधिकाँश देश अपनी आर्थिक समृद्धि के ताने-बाने बुनने में लगे थे परन्तु कुछ देश आर्थिक विकास के साथ-साथ महाशक्ति बनने की दौड़ में भी रहे। द्वितीय विश्वयुद्ध के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार जर्मनी तो पूर्वी तथा पश्चिमी जर्मनी दो टुकड़ों में बँट चुका था जो सालों बाद एकीकृत हो पाए लेकिन चीन बिना किसी वाह्य व्यवधान के, साम्यवादी व्यवस्था के अंतर्गत समृद्धि के साथ अपनी सामरिक शक्ति में भी वृद्धि करता रहा। इसीलिए कुछ दशक पूर्व तक प्रमुख विश्व शक्तियाँ अमेरिका तथा चीन माने जाते थे, विखण्डन के कारण रूस प्रतिस्पर्धा से बाहर रहा परन्तु रूस भी अपनी सामरिक शक्ति में लगातार वृद्धि करता रहा परिणाम आज सबके सामने है। चीन ओट में बैठा हुआ अपने कार्यक्रम निर्विघ्न चला रहा है और राष्ट्रपति पुतिन, जिन्होंने अपना कार्यकाल वैधानिक लबादे के अंतर्गत 2038 तक के लिए बढ़ा लिया है, अब एकीकृत सोवियत संघ के सपने देख रहे हैं। उधर नाटो देश यूक्रेन की सैन्य सहायता की जगह प्रतिबन्धों से आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं।
बहरहाल, इस अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम से रूस एक बार फिर दुनिया का बॉस साबित हो चुका है और यह प्रकारांतर से पूँजीवादी अमेरिका की शिकस्त भी है, यही चीन की भी मंशा है। इसका प्रभाव निश्चित रूप से विश्व के सम्पूर्ण आर्थिक ढाँचे पर पड़ने वाला हैl

(लेखक इंदौर के वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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