कठिन डगर पर सधे हुए कदमों की लंबी यात्रा का पूर्णविराम..

  
Last Updated:  March 26, 2023 " 01:34 pm"

*जयदीप कर्णिक*

इंदौर : बात सन 1998 के अक्टूबर की है। मालवा की खुशनुमा सर्दी की बस शुरुआत ही थी। सुबह ठीक 6.30 बजे इंदौर के साकेत चौराहे पर स्टील ट्यूब्स ऑफ इंडिया की बस आती-जाती थी। हर रोज़ की तरह उस दिन भी मैं बस में चढ़ गया। पिछले लगभग तीन साल से मैं यही तो कर रहा था। क्या मैं ज़िंदगी भर यही करते रहना चाहूँगा? रात भर ज़ेहन को मथते रहे इस सवाल ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा था। बल्कि और मजबूती से घेर लिया था। क्या मैं इस तरह 4.75 और 6.35 की (संदर्भ फिर कभी) कॉर्पोरेट नौकरी के लिए ही बना हूँ? फिर मर्म में छिपे उस सृजन, लेखन, पठन और पत्रकारिता के उस तीव्र मनोभाव का क्या जिसे मैंने जैसे-तैसे दबाया हुआ था? कंपनी की बस तय समय पर देवास परिसर में दाखिल हो चुकी थी। इस तीखे वैचारिक संघर्ष के बीच सुबह ठीक आठ बजे टेबल पर आने वाली चाय आ चुकी थी और मैं अपना निर्णय ले चुका था। चाय का प्याला रखते हुए ही संयोगवश वो मुहावरा मन में गूंज उठा – दिस इज नॉट माय कप ऑफ टी। प्याला रखते ही मैं अपना इस्तीफा लिखना शुरु कर चुका था। इस्तीफा स्वीकृत होने में वक्त लगा और वो कहानी फिर कभी। पर जैसे ही मंजूरी मिली अगला फोन अभयजी को ही किया था।
तराणेकर मैडम ने फोन उठाया था और मेरे निवेदन पर अभयजी से पूछकर हमें जोड़ दिया। जुड़े हुए तो हम पहले से थे। आना-जाना, मिलना बचपन से था। पर यह एक अलग जुड़ाव की शुरुआत थी।
मैंने कहा आपसे जरूरी में मिलना है अभयजी!
बोलो – क्या बात है?
मिलकर ही बता पाऊँगा, मैंने कहा।
शाम को आ जाओ, तुरंत उत्तर मिला और फोन बंद।
तो उस शाम मेरा जीवन बदल देने वाली वो मुलाक़ात हुई। अभयजी अपने चिर-परिचित सफ़ेद कलफ वाले कुर्ते और पजामे में नईदुनिया के खुले दफ्तर की उसी बाहर वाली मेज पर बैठे थे जिसकी दाहिनी खिड़की से उन्हें बाबू लाभचंदजी की प्रतिमा और हर आने-जाने वाला व्यक्ति दिखाई देता था। किसी ज़रूरी कागज को पढ़ते हुए ही उन्होंने मुझसे कहा था, आओ जयदीप, बैठो। कागज पर कोई टीप लगाकर उसे जावक ट्रे में रखने के बाद बोले, अब बताओ ऐसी क्या ज़रूरी बात हो गई? मैंने तपाक से कहा, सर पत्रकारिता करना है। आपके यहाँ जगह हो तो बताइए? वो थोड़ा सा ठिठके। उनसे बहुत बरसों के संबंध रखने वाला मैं, अचानक उनसे बहुत औपचारिक और गंभीर हो गया था। वो इस गंभीरता को ही भाँपते हुए बोले – क्या तुमने ठीक से सोच लिया है, तुम्हारी नौकरी तो अच्छी चल रही है। मैंने कहा अभयजी मैं तो सोच चुका हूँ,आप बताइए। एकदम सीधा और सपाट। उन्होंने फिर थोड़ा समझाइश देने या यों कहें कि मेरे इरादे की मजबूती भाँपने की कोशिश की। मैं तो ठान कर ही आया था। फिर मैंने एक ऐसा वाक्य कहा जिसने विमर्श की दिशा ही बदल दी। मैंने कहा अभयजी पत्रकारिता तो करनी ही है। अगर मध्यप्रदेश में करूंगा तो नईदुनिया में ही, अगर आप ना कहेंगे तो मैं तुरंत दिल्ली चला जाऊंगा।
अभयजी समझ गए और सीधा सवाल किया, क्या तुमने रमेश (बाहेती जी) को सब बता दिया है? क्या वो सहमत हैं? चुंकि अभयजी और डॉक साब यानि डॉक्टर रमेश बाहेती जिनके यहाँ स्टील ट्यूब्स में मैं कार्यरत था, दोनों अभिन्न मित्र थे, अभयजी नहीं चाहते थे कि उस स्तर पर कोई दिक्कत हो। इसको मैं पहले ही साध चुका था। इसके बाद अभयजी ने कहा हम उतने कॉर्पोरेट वाले पैसे नहीं दे पाएंगे।
मैंने कहा, वो मैं सोच चुका हूँ।
कब से आना चाहोगे, अभयजी ने पूछा। मैंने कहा, वहाँ 30 नवंबर आखिरी कार्य दिवस है। एक दिसंबर से आना चाहूँगा, एक दिन भी बिना रुके। उन्होंने कहा ठीक है।
तो इस तरह 1 दिसंबर 1998 को नईदुनिया के साथ मेरा औपचारिक सफर शुरु हुआ।
आज अभयजी के चले जाने के बाद यही मुलाक़ात बार-बार ज़ेहन में घुमड़ रही है। ये मुलाक़ात यों बहुत आसान नहीं थी। पर ये आसान हो गई थी महाविद्यालय के दिनों की अभयजी से हुई मुलाकातों से।
वाद-विवाद और रचनात्मक लेखन से जुड़े हम साथियों ने उससे कहीं आगे बढ़कर एक अखबार निकाल दिया था, ‘उद्घोष प्रयास।’ अभयजी इसकी पूरी यात्रा के साक्षी रहे। मार्गदर्शक और आलोचक दोनों ही रूपों में। अभयजी उन दिनों एक विराट व्यक्तित्त्व थे। बहुत प्रभावी आभामंडल वाले। लार्जर देन लाइफ! इन्हीं अभयजी को हम साथियों ने उद्घोष प्रयास का एक साल पूरा होने पर अपने कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के तौर पर बुलाया था। बहुत जिद के साथ। कार्यक्रम का नाम था युवार्पण। युवाओं को अर्पित एक समाचार पत्र।
मेरी अभयजी से इस मुलाक़ात और फिर नईदुनिया से औपचारिक जुड़ाव में इस युवार्पण का भी बहुत बड़ा योगदान रहा। शायद अभयजी ने उस दिन उस जिद और जुनून को भाँप लिया था। तो 1998 के बाद जिस तरीके से अभयजी ने मुझे अपनाया,आगे बढ़ाया वो अपने आप में एक इतिहास है।
एक दिसंबर को नौकरी के पहले दिन ही उन्होंने मुझे ‘लंबी टेबल’ यानि प्रूफ डेस्क के प्रभारी किशोर शर्मा ‘दादा’ के हवाले कर दिया था और कहा था इसे काम सिखाओ। मैं अवाक था। देश दुनिया की भाषण प्रतियोगिताएं जीतने और कॉलेज में ही अखबार निकाल देने वाला मैं, यहाँ प्रूफ रीडिंग के लिए तो नहीं आया था। यही गुरूर मेरे मन में आया था उस दिन पर दो-तीन दिन प्रूफ की टेबल पर बैठने के बाद ही दिमाग के जाले साफ हो गए और अहंकार का तिलिस्म टूट गया। पता चल गया कि नईदुनिया, नईदुनिया क्यों है?
बाबू लाभचंदजी, राजेन्द्र माथुर, राहुल बारपुते और रणवीर सक्सेना जैसे कई दिग्गजों की नईदुनिया, जो अपने आप में पत्रकारिता के एक गुरुकुल के रूप में स्थापित हो चुकी थी। अब उस गुरुकुल को अभयजी नेतृत्व दे रहे थे। अभयजी और महेन्द्रजी की दो मेजों से चलने वाली नईदुनिया की धाक बरकरार थी और अभयजी का व्यक्तित्त्व विशाल होता जा रहा था।
इसी छत्र-छाया में मैं गुरुकुल का नया सदस्य था और अभयजी की स्नेह वर्षा से तर-बतर। वो भी इतनी कि आस-पास जलन और ईर्ष्या का गुबार उठने लगे। पर इस सबसे अनभिज्ञ मैं अपने काम में डटा हुआ था। प्रूफ, फिर फीचर डेस्क साथ में सिटी रिपोर्टिंग, कभी डाक, कभी टेलीप्रिंटर कभी दिवाली विशेषांक। हर तरह का काम सौंपा। सुबह दस बजे से देर रात सिटी रिपोर्टिंग तक, अभयजी ने इतना काम करवाया, जिसे मैं उस समय रगड़ना समझ रहा था और अभयजी मुझे तैयार कर रहे थे, तराश रहे थे।
बहुत सारे अनुभव हैं अभयजी के साथ। ना यादें कम हो पाएंगी ना कलम रुक पाएगी।
दरअसल अभयजी के कई रूप थे। और उनमें से हर रूप अपने आप में एक उपन्यास। उनका हर रूप एक अंतहीन संघर्ष की दास्तान है। बाहर-भीतर हर तरह का संघर्ष।
उनका सबसे महत्वपूर्ण संघर्ष था मालिक-संपादक होने का संघर्ष। एक ऐसी नईदुनिया जिसे खुद उनके पिता बाबू लाभचंदजी ने गढ़ा था। जिसमें संपादक एक पूरी संस्था थी और लगातार पत्रकारिता के मूल्यों को परिभाषित कर रही थी। संपादक सर्वोपरि था। उस नईदुनिया में एक मालिक का संपादक बन जाना एक ऐसी अग्निपरीक्षा थी जिसे अभयजी ताउम्र देते रहे। इस संघर्ष में ही उनका जीवन निकल गया। अपनी तमाम पत्रकारीय समझ, दूरदृष्टि, लेखकीय पकड़, कुशल प्रबंधन, सतत नवाचार के आग्रह और ऐसे ही अनेक विलक्षण गुणों के बाद भी वो उन अंगारों पर चलते रहे।
उनके अन्य रूपों की भी बहुत विस्तार से चर्चा हो सकती है पर पत्रकारिता के क्षेत्र में उनका योगदान और एक मालिक-संपादक के तौर पर उनका संघर्ष अभूतपूर्व और अतुलनीय है।
अभयजी से बहुत कुछ सीखा, वो सब आज भी साथ है और काम आ रहा है। मैं बहुत सौभाग्यशाली हूँ कि उनका ऐसा सान्निध्य मुझे मिला।
पिछले कुछ समय से अभयजी का स्वास्थ्य ठीक नहीं था। जब तक वो अभय प्रशाल जा पा रहे थे, मिलना अधिक होता था। हर बार इंदौर आने पर तय था। फिर तबीयत ने साथ नहीं दिया और हमेशा सक्रिय रहने वाले अभयजी घर तक ही सिमट गए। कभी मुलाक़ात हो पाती थी कभी नहीं। असल में तो उनके जीवन के इतने संघर्ष देखने के बाद इस एक और संघर्ष को देखना भी थोड़ा कठिन ही था। देह से मुक्ति भी उनके लिए आसान नहीं रही। पर जीवट उनका पूरा था। पिछले साल 4 अगस्त को उनके जन्मदिन पर वीडियो कॉल पर उनको देखा था। फिर दीपवाली पर मिलने गया तो खराब स्वास्थ्य के कारण उनसे मुलाक़ात नहीं हो पाई। केवल विनयजी से मुलाक़ात हुई। उसी समय विभूति शर्मा और संजय तेलंग जी भी आए हुए थे। हम नईदुनिया की पुरानी यादों में खोए रहे और फिर चले आए।
उनके स्वास्थ्य को देखते हुए यह तो पता था कि अब उनके पास बहुत समय नहीं है। पर व्यक्ति के होने और ना होने में फिर भी बहुत बड़ा फर्क है, आज यानि 23 मार्च की सुबह जब ये समाचार आया कि समाचारों की दुनिया का एक बड़ा नक्षत्र अस्त हो गया है, अभयजी नहीं रहे तो एक अजीब तरह की रिक्तता ने घेर लिया। चीजें तय होने पर भी जब होती हैं तब उसकी गंभीरता का एहसास होता है। एक उम्मीद टूटती है, एक विराम लगता है। जीवन का दर्शन घेर लेता है।
पिपल्या पाला के मुक्ति धाम पर जलती चिता के बीच से उठती लपटों के बीच विचारों, यादों और अभयजी के साथ गुजरे समय की रील दिमाग में घूमती चली जा रही थी। समय के पहिए पर लिखी इतिहास की इबारतें कभी उजली कभी धुंधली हो रही थी। तमाम आलोचनाओं, विवादों, प्रशंसाओं और किन्तु परंतु के बीच भी मध्यभारत का सबसे बड़ा शक्ति पुंज रहा एक व्यक्ति यों पंचतत्व में विलीन हो रहा था। पूरी लाइमलाइट अपनी तरफ खींचने वाला वो करिश्माई व्यक्तित्व इसी जीवन में उस उजली तस्वीर का दूसरा पहलू देखने को विवश हुआ। समय बड़ा बलवान भी है और बेरहम भी।

अभयजी के व्यक्तित्त्व और भाषाई पत्रकारिता में उनके योगदान को लेकर लिखा-पढ़ा जाता रहेगा। पूरी तस्वीर इतनी बड़ी है कि एक साथ मुकम्मल होनी मुश्किल है। सच ये है कि अपनी जिद से अपना चाहा हासिल करने वाले अभयजी जैसा कोई दूसरा होना मुश्किल है। उन्होंने जो भी चाहा उसे पाने की जिद पर अड़ जाते थे, फिर चाहे उन्हें कोई भी कीमत चुकानी पड़ी हो!

आप मेरे साथ हमेशा रहेंगे अभयजी। मेरा शत शत नमन। विनम्र श्रद्धांजलि। ईश्वर से प्रार्थना है कि अब वो अभयजी के तमाम संघर्षों को यहाँ इस लोक में ही विराम दें और उस लोक में उन्हें वो सब मिले जिसके वो हकदार हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और अमर उजाला. कॉम के संपादक हैं।)

Facebook Comments

Related Posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *