खंडवा उपचुनाव –
आदिवासी, राजपूत और पिछड़ा वर्ग के वोटों को साधने की कोशिश
इंदौर, प्रदीप जोशी। प्रदेश की एक लोकसभा और तीन विधानसभा सीटों पर होने जा रहे उप चुनाव के लिए शनिवार 30 अक्टूबर को मतदान होना है। इन उप चुनावों का सरकार की सेहत पर भले प्रभाव ना हो मगर प्रतिष्ठा दोनों ही दलों की जुड़ी हुई है। यह चुनाव चावल की हांडी के दाने हैं, जिसके जरिए आने वाले लोकसभा और विधानसभा चुनाव के मिजाज का आकलन किया जा सकता है। खंडवा में चुनाव का फैसला आदिवासी, राजपूत और पिछड़ा वर्ग के हाथ में है, लिहाजा भाजपा और कांग्रेस दोनों ही दलों ने इन वर्गो पर सबसे ज्यादा फोकस किया। भाजपा ने इस चुनाव में जिस अंदाज में ताकत झोकी उससे समझा जा सकता है कि यह चुनाव उतना आसान नहीं है जितना शुरूआत में लग रहा था। खंडवा लोकसभा क्षेत्र के भीतर आठ विधानसभा सीटें खंडवा, बुरहानपुर, नेपानगर, पंधाना, मांधाता, बड़वाह, भीकनगांव और बागली आती है। इनमें तीन सीट पर भाजपा, चार सीट पर कांग्रेस और एक सीट पर निर्दलीय का कब्जा है। सचिन बिरला के पाला बदलने के बाद कांग्रेस की एक सीट फिलहाल सूची से कम हो चुकी है। बहरहाल, खंडवा सीट पर दूसरी बार उप चुनाव हो रहा है। 41 बरस पहले पार्टी के पितृ पुरूष कुशाभाऊ ठाकरे उप चुनाव जीते थे। देखना होगा भाजपा की उपचुनाव जीत की परम्परा कायम रहती है या नहीं।
ऐसे समझे जातिगत समीकरण –
खंडवा संसदीय क्षेत्र में मतदाताओं की संख्या 19 लाख 68 हजार है। इस क्षेत्र का 76 फीसदी से ज्यादा भाग ग्रामीण है और शेष आबादी शहरी। जातीय समीकरण देखें तो एसी-एसटी वर्ग के वोटर सबसे ज्यादा 7 लाख 68 हजार हैं इसमे तीन विधानसभा क्षेत्र में ही आदिवासी वोट निर्णायक भूमिका में हैं। पिछड़ा वर्ग के मतदाता पांच लाख से ज्यादा यानी 26 प्रतिशत है। इनके अलावा 15 प्रतिशत अल्पसंख्यक, 20 प्रतिशत सामान्य वर्ग के मतदाता हैं।
प्रत्याशी को पीछे और बड़े नेताओं को रखा आगे –
दरअसल, भाजपा प्रत्याशी पाटिल पूरे लोकसभा क्षेत्र के लिए पहचाने जाने वाला चेहरा नहीं है। लिहाजा पार्टी ने शुरूआती रणनीति को बदलना उचित समझा और तमाम बड़े नेताओं को कमान सौप दी। पूरे चुनावी केम्पेन में भाजपा प्रत्याशी ज्ञानेश्वर पाटिल को पीछे और जातिगत समीकरण बैठाते हुए पार्टी के बड़े चेहरों को आगे रखा। मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान, केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया, नरेंद्रसिंह तोमर की आधा दर्जन सभाओं के अलावा प्रदेश मंत्रिमंडल के छह मंत्री बीते पंद्रह दिन से डेरा डाले रहे। इनके साथ प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा, संगठन महामंत्री सुहास भगत और सह संगठन महामंत्री हितानंद शर्मा भी अलग अलग दौर में आते रहे। लोकसभा क्षेत्र के हर ब्लॉक में बड़े नेताओं को प्रभारी नियुक्त किया गया था।
आम चुनाव से ज्यादा लगाई ताकत –
बीजेपी ने आम चुनाव से भी ज्यादा ताकत इस उप चुनाव में लगा दी, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि तुलसीराम सिलावट, विजय शाह, कमल पटेल, जगदीश देवड़ा, मोहन यादव, हरदीप सिंह डंग जैसे कद्दावर मंत्री मैदान में डटे रहे। इन मंत्रियों के अलावा जीतू जिराती, शंकर लालवानी, गोपी नेमा, कविता पाटीदार जैसे दर्जन भर से ज्यादा नेता अलग अलग विधानसभा क्षेत्र में डेरा जमा कर बैठे थे।
चालीस साल की सेवा का प्रतिफल मांग रहे पूरनी –
कांग्रेस प्रत्याशी राजनारायण सिंह पूरनी का चुनावी केम्पेन बहुत शांत और सधा हुआ सा चलता रहा। सत्तर बरस के इस खांटी नेता की अपील मतदाताओं के दिल पर असर करने जैसी है। राजनारायण सिंह जनता से अपनी चालीस साल की सेवा का प्रतिफल मांग रहे हैं। हाल ही में हुए उप चुनाव में मांधाता से अपने पुत्र उत्तमपाल की हार की टीस गिनाना भी वे नहीं भूलते। चूकी उनके टिकट में अरूण यादव की भूमिका और रजामंदी रही है, लिहाजा चुनाव की कमान भी यादव ने ही थाम रखी है। खास बात यह है कि कांग्रेस इस चुनाव में पहली बार इतनी संगठित दिखाई दे रही है। जिससे मुकाबला बराबरी पर बना हुआ है।
सचिन से सचिन की काट –
चुनाव के ऐन पहले बड़वाह विधायक सचिन बिरला के पाला बदलने के दंश से आहत कांग्रेस ने सचिन पायलट के जरिए डेमेज कंट्रोल की कोशिश की। सनावद, मुंदी जैसे गुर्जर बहुल इलाकों में पायलट की सभा रखवाई। इसके अलावा वरिष्ठ नेता ताराचंद पटेल सहित अन्य गुर्जर नेता समाज को एकजुट करने के प्रयास में जुटे हैं। सचिन बिरला से पहले नारायण पटेल ने सिंधिया के साथ कांग्रेस छोड़ी थी। समाज के दो विधायकों द्वारा दिए गए इस्तीफे को समाज की प्रतिष्ठा खराब होने से जोड़ा जा रहा है। हर फोरम पर यह बात कांग्रेस के गुर्जर नेता प्रमुखता से कर रहे हैं। बहरहाल, डेमेज कंट्रोल हुआ कि नहीं इसका पता मतगणना के बाद चल जाएगा।