घर जाने के लिए मजदूरों को हजारों किलोमीटर पदयात्रा करनीं पड़े, ये कौनसा भारत है..?

  
Last Updated:  May 12, 2020 " 07:43 am"

कीर्ति राणा

इंदौर : रात तक इकट्ठे हुए जूठे बर्तन मांजने के लिए रख दिए थे। सुबह बर्तन साफ करने के लिए बैठा तो जूठन लगे बर्तनों पर लाल चीटिंयों का झुंड अपने काम में लगा था।मेरे लिए बर्तन साफ करना प्राथमिकता थी लिहाजा ऐसे बर्तनों को नल के नीचे रखा और तेज धार से चींटियां तितर-बितर हो गईं। पानी की धार से बची कुछ चीटिंयां रेंगते हुए हाथ पर चढ़ गई, फूंक मार कर उन्हें अलग किया इस बीच पैर की अंगुलियों तक पहुंची कुछ चींटियों ने काटा तो उन्हें भी पानी डाल कर अलग कर दिया, काटी हुई जगह को हल्के से मसला और फिर काम में जुट गया।
बर्तन साफ करते हुए आंखों के सामने घूम रहे थे वो दृश्य जब सींमेंट-कांक्रीट वाले टैंकर, दूध के टैंकर में छिप कर एक राज्य से दूसरे राज्य वाले अपने गांव-घर जाने वाले मजदूरों को इंदौर, गुजरात, हरियाणा आदि की बार्डर पर तैनात पुलिसकर्मी टैंकर आदि से बाहर निकाल कर विभिन्न धाराओं में प्रकरण दर्ज कर गिरफ्तारी कर रहे थे और न्यूज चैनलों पर चल रही ऐसी तमाम ब्रेकिंग न्यूज शायद ही हलचल पैदा कर रही थी। किसी न्यूज रूम में हलचल हुई होती तो कोई एंकर चीख चीख कर सवाल पूछता, सच जानने के लिए केंद्र के मंत्रियों पर दहाड़ता, दो चार पांच मजदूर नेताओं से बहस करता नजर आता पर ऐसा नहीं हुआ।
घरों में कैद भारत को जब सिर्फ अपनी और अपने परिवार की चिंता हो तो इन दिहाड़ी मजदूरों की चिंता कोई क्यों करेगा। खुद मेरी प्राथमिकता जूठे बर्तन साफ करने की थी, मैं भी यह भूल गया कि ये सैंकड़ों चींटियां भी तो मेरा काम हल्का कर रही थी। लगभग यही हालत कोरोना कर्फ्यू वाले दिन से अब तक विभिन्न राज्यों में फंसे ऐसे लाखों दिहाड़ी मजदूरों की हो रही है।मजदूरी के लिए गांव-घर से इनके झुंड जब निकले थे तब बस, रेल आदि साधन मिल गए थे और अब भूखे पेट, नंगे पैर सिर पर गृहस्थी के सामान का गट्ठर लादे, अधनंगे बच्चों का हाथ पकड़े बढ़े चले जा रहे थे अपने घरों की तरफ। कहां रुकेंगे, क्या खाएंगे की चिंता से बेफिक्र इन मजदूरों में से कब किसने कहां दम तोड़ दिया, रेल की पटरियों से घरों की तरफ जाती महिलाओं के सपनों को धड़धड़ाती रेल ने कब चीर दिया, कितनों के पैर में फफोले पड़ गए, कौन नव प्रसूता पर्याप्त भोजन नहीं मिलने से नवजात बच्चे को दूध तक न पिला सकी, ऐसी खबरें आईं भी तो हमें अपनी चिंता के आगे बेमानी ही लगीं।मृत मजदूरों को तो कोरोना वारियर्स जैसा सम्मान भी नहीं मिल सकता, इन्होंने तो चोरी छुपे अपने घर जाने के लिए जान दी है।
लाकडाउन के इस पार्ट थ्री में यह बात समझ आई है कि इससे सर्वाधिक प्रभावित होने वाले मजदूर वर्ग की हालत ‘लगान’ के क्रिकेट मैच में जुटी उन हजारों एक्स्ट्रा कलाकारों जैसी ही रही है जिनका फिल्म की सफलता में कहीं जिक्र नहीं रहा। खाड़ी देशों में काम की उम्मीद में मजदूरों को जहाज में छुप कर जाते तो सुना था लेकिन कोरोना ने यह सच भी दिखा दिया जिसे नजर अंदाज कर सरकार अपनी पीठ थपथपा रही है कि मजदूरों को भूखे-प्यासे सैंकड़ों किलोमीटर पदयात्रा करते हुए अपने घर पहुंचना है।अखंड भारत की दो बार पदयात्रा करने वाले आदि शंकराचार्य से लेकर आजादी आंदोलन के लिए अलख जगाने पैदल चलने वाले महात्मा गांधी का नाम तो फिर भी इतिहास में दर्ज हो गया लेकिन अपने घर जाने के लिए ठाणे (महाराष्ट्र) से दूध के टैंकर में छिप कर या सीमेंट के मिक्सर टैंकर में छुप कर जाने वाले मजदूरों को तो गिरफ्तारी का दंड भुगतना पड़ा है।जब विश्व के बाकी देशों में कोरोना पैर पसार रहा था तब हमारी सरकार अमरीकी राष्ट्रपति ट्रंप की अगवानी में रेड कारपेड बिछाने और गंदगी को छुपाने के लिए ऊंची दीवार उठाने में लगी थी।
इस कोरोना काल ने अनचाहे यह संदेश भी दे दिया कि मेक इन इंडिया के सपने को पूरा करने में देश के आम मजदूर के लिए जगह नहीं है। सरकार के लिए विदेशों और देश के विभिन्न राज्यों में फंसे छात्रों को उनके मुकाम तक पहुंचाना प्राथमिकता रहे और प्रधानमंत्री आवास योजना सहित गगनचुंबी इमारतों का सपना पूरा करने वाले मजदूरों को पैदल, टैंकरों में छुप कर अपने गांव-घर तक पहुंचने में जान गंवानी पड़े तो ये कौनसा भारत है? अब ट्रेन चलाई जा रही है, एक राज्य से दूसरे राज्य तक मजदूर परिवारों को लेकर बसें भी दौड़ रही हैं।लॉकडाउन पार्ट थ्री में यह सब किया जा सकता है तो लॉकडाउन लागू करने से पहले इन लाखों दिहाड़ी मजदूरों को सुरक्षित घर पहुंचाने की दिशा में काम क्यों नहीं हो सकता था।प्रधानमंत्री ने इस डेढ महीने में कम से कम तीन बार राज्यों के मुख्यमंत्रियों से चर्चा की है। इस चर्चा में शिवराज सिंह, बिहार के नीतिश कुमार और झारखंड के हेमंत सोरेन से लेकर राजस्थान के अशोक गेहलोत तक शामिल रहे हैं।इन राज्यों ने भी अपने राज्यों के छात्रों को लेकर चिंता जाहिर की दिहाड़ी मजदूरों को लेकर इन सब के मुंह में भी दही जमा रहा।जब केंद्र की प्राथमिकता में ही मजदूर नहीं रहे तो कोई मुख्यमंत्री बेवजह क्यों पंगा लेने लगा केंद्र से और शिवराज सिंह तो बिलकुल नहीं।
दरअसल इन दिहाड़ी मजदूरों की दशा भी आलू की तरह हो गई है।कोरोना कर्फ्यू के पहले दिन से अब तक एक आलू ही है जो बिना ताली, थाली, शंखनाद के शोर वाली प्रशंसा के बिना हर गृहणी का सहारा बना हुआ है।कोरोना वारियर्स के गुणगान में तो पूरा देश उत्साह से जुटा है लेकिन न तो आलू का त्याग चर्चा में है, न ही देश के अन्नदाता की याद आ रही है जो अभी भी फसल काटने से लेकर मंडी तक पहुंचाने में पसीना बहा रहा है।अन्नदाता का पसीना बहता है तभी गृहणियां भी अन्नपूर्णा का गौरव पाती हैं।किसान की तरह मजदूरों की चर्चा भी इस कोरोना काल में नहीं है। जो मजदूर आज अपने घरों को जाने के लिए तड़प रहे हैं क्या वे तब उतनी उमंग से फिर लौटेंगे जब कारखानों की चिमनियां धुआं उगलने लगेंगी और कंस्ट्रक्शन साइट शुरु होंगी। हर हाथ को काम देने के संकल्प को पूरा करना इतना मुश्किल भी नहीं होता यदि देश में लॉकडाउन लागू करने से पहले दिहाड़ी मजदूरों का अपने देस पहुंचने का सपना पूरा कर दिया जाता।
सैंकड़ों पदयात्रा कर के और हजारों अब उदार सरकार द्वारा चलाई स्पेशल ट्रेनों से अपने घरों को लौटने लगे हैं। कोरोना का कहर एक न एक दिन कम होना ही है। तब हम अपने बच्चों को किस्से सुनाएंगे घरों में रहते कैसे वक्त गुजारा, कभी यूट्यूब की मदद से बनाए पकवान की याद करेंगे तो कभी अंताक्षरी तो कभी बेटे ने बाप की कटिंग कैसे की, कैसे पड़ोस के घर से टमाटर-मिर्ची मांगी थी।इस कोरोना की त्रासदी को ये लाखों दिहाड़ी मजदूर भुला सकेंगे क्या? इनके साथ जो बचपन अभी सैकड़ों किमी पैदल चला है उसके दिमाग से हारर फिल्म जैसे ये दृश्य डिलीट तो नहीं होंगे। तो क्या ये बच्चे ढीलपोल वाली सरकारी व्यवस्था से नफरत करने वाले एंग्री यंग मेन, पानसिंह तोमर तो नहीं बनेंगे। बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ तो पहले से ही नक्सली गतिविधियों के लिए पहचाने जाते हैं, यह फैलाव बाकी राज्यों में मजबूत होगा तो उसे खाद-पानी देने का काम ये सारे एंग्री यंग मेन नहीं करेंगे? जूठे बरतनों से पानी की धार से छितरी चींटियों नें भी तो रेंगते हुए पैरों पर पहुंचकर काटते हुए अपना विरोध दर्ज कराया था।
बेहतर तो यह होता कि लाकडाउन लागू करने से पहले इंटरनेशनल फ्लाइट सख्ती से रोकी जाती, पर यह निर्णय जान बूझकर टाला गया । ‘नमस्ते ट्रंप’ के लिए बेताब सरकार को तब भी पता था कि बाकी देशों में कोरोना ने काम दिखाना शुरु कर दिया है। बेहतर यह भी हो सकता था कि लॉक डाउन से पहले लाखों दिहाड़ी मजदूरों को उनके शहरों तक पहुंचाने के लिए स्पेशल ट्रेने चलाने की चिंता की होती। अब जो मजदूर अपने घर पहुंच गए हैं, उनमें से कितने मजदूरी के लिए अन्य राज्यों में जाने का साहस दिखाएंगे यह वक्त बताएगा।

( ये लेखक के निजी विचार हैं। आप इससे सहमत या असहमत हो सकते हैं।)

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