सीता और गीता सगी बहनें थी। परिवार में लड़के की चाहत बहुत होती है। जब सीता का जन्म हुआ तब कुछ संकेत देखकर दादी ने कहा की अगली संतान अवश्य ही पुत्र होगी, पर नियति के खेल निराले होते है। पुनः कन्या संतति का जन्म हुआ जिसका नाम गीता था। सीता शुरू से ही जिम्मेदार और प्रतिभावन थी और वह यही गुण अपनी छोटी बहन में लाना चाहती थी। वह हमेशा उसे छोटी-छोटी प्रतियोगिताओं में भाग दिलाती। उसका साहस बढ़ाती, पढ़ाई के प्रति जागरूक होने की सीख देती। वह उसके आगे बढ्ने में कोई कसर नहीं छोडती।
जब दादी के द्वारा गीता की शिक्षा को रोकने की बात सामने आई, तब सीता ने उनके निर्णय को अस्वीकार किया और गीता की अनवरत शिक्षा यात्रा की ओर कदम बढ़ाया। जब पारिवारिक जिम्मेदारियों के चलते विवाह की बात हुई तो बड़े होने के नाते बड़प्पन दिखाया और अपनी छोटी बहन के गृहस्थ जीवन की खुशी के लिए विवाह नहीं करने का निर्णय लिया। सीता ने हमेशा एक बड़े भाई की तरह उसे आगे बढ़ाने में सहयोग किया अर्थात बड़ी बहन में भी वह भाई का किरदार बखूबी निभा रही थी।
इसके विपरीत एक अन्य परिवार में ओम ने अपनी बहन लक्ष्मी का साथ कभी नहीं दिया। जब वह गाँव से शहर पढ़ाई के लिए आना चाहती थी तब भी ओम दीवार बना। जब लक्ष्मी का रिश्ता तय हुआ तब भी ओम ने माता-पिता के साथ लड़के की पारिवारिक खोजबीन में कोई सहयोग नहीं किया। बाद में पता चला की लक्ष्मी का जीवनसाथी किसी अन्य स्त्री के चक्कर में था, इसलिए उनका तलाक हो गया। पर लक्ष्मी अब भी चाहती की वह पुनर्विवाह करें और नए सिरे से अपना घर बसाए क्योंकि माता-पिता के गुजर जाने के बाद भाई-भाभी के साथ रहना बहुत ही कष्टदाई हो रहा था। पूरा दिन उसे घर का कामकाज करना पड़ता था। उसकी यह मजबूरी उसे यह सब कुछ सहने के लिए बाध्य कर रही थी। लक्ष्मी ने विवाह के पहले पार्लर का काम सीखा था। उसने छोटी शुरुआत की पर उससे कमाया हुआ रुपया भी ओम को देना पड़ता था। बड़े भाई के होने पर भी उसे कभी ममता भरा हाथ सिर पर होने का आशीर्वाद और विश्वास नहीं मिला। जब लक्ष्मी दुखी होकर चुपके-चुपके रोती तो उसके आँसू पोछने के लिए भी कोई नहीं होता था। लक्ष्मी केवल बड़े भाई के आश्रय में अपनी जीवन यात्रा को काट रही थी अर्थात भाई में भी उसे भाई होने का और ज़िम्मेदारी उठाने का कोई पहलू नहीं मिला।
प्रायः यह देखा जाता है की कभी-कभी भाई भी बहन पर अत्यधिक रोकटोक लगाते हैं। यह कपड़े मत पहनो, यहाँ मत जाओ, तुम लड़की हो, समय पर शादी-ब्याह करों, आगे पढ़ने की क्या जरूरत है जब घर ही संभालना है, अपनी पहचान बनाने की क्या जरूरत है, सच के लिए मत लड़ों, विवाह के बाद सहनशीलता ही एकमात्र रास्ता है। कभी-कभी भाई, बहन के विवाह के पश्चात उसे पराया मान लेते है और उसके दु:ख से कोई सरोकार नहीं रखते। क्या इन्हीं सब के चलते हम भाईदूज और राखी पर भाई के महत्व को याद करते हैं। इस लघुकथा से यह शिक्षा मिलती है की भाई-बहन का रिश्ता संकट में साथ, आशीर्वाद और दु:ख के समय साथ देने वाला और हौसला बढ़ाने वाला होना चाहिए, न की सिर्फ भाईदूज पर भाई को याद करके उसके लिए मंगलकामना का। मन की सच्चाई हो तो बड़ी बहन भी भाई का रोल निभा सकती है वरना बड़ा भाई होने पर भी बहन को सहयोग नहीं मिलता।
डॉ. रीना रवि मालपानी (कवयित्री एवं लेखिका)