प्रस्तुति: गोविन्द मालू
दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितम्बर 1916 को मथुरा जिले के नगला चन्द्रभान ग्राम में हुआ था। उनके पिता का नाम भगवती प्रसाद उपाध्याय था, जो नगला चंद्रभान (फरह, मथुरा) के निवासी थे। उनकी माता का नाम रामप्यारी था, जो धार्मिक प्रवृत्ति की थीं। पिता रेलवे में जलेसर रोड स्टेशन के सहायक स्टेशन मास्टर थे।
रेल की नौकरी होने के कारण उनके पिता का अधिक समय बाहर ही बीतता था। कभी-कभी छुट्टी मिलने पर ही घर आते थे। दो वर्ष बाद दीनदयाल के भाई ने जन्म लिया, जिसका नाम शिवदयाल रखा गया। पिता भगवती प्रसाद ने बच्चों को ननिहाल भेज दिया। उस समय उपाध्याय जी के नाना चुन्नीलाल शुक्ल धनकिया (जयपुर, राज०) में स्टेशन मास्टर थे। नाना का परिवार बहुत बड़ा था।दीनदयाल अपने ममेरे भाइयों के साथ बड़े हुए।
नाना का गाँव आगरा जिले में फतेहपुर सीकरी के पास ‘गुड़ की मँढई’ था। दीनदयाल अभी 3 वर्ष के भी नहीं हुए थे, कि उनके पिता का देहांत हो गया। पति की मृत्यु से माँ रामप्यारी को अपना जीवन अंधकारमय लगने लगा।वे अत्यधिक बीमार रहने लगीं। उन्हें क्षय रोग हो गया। 8 अगस्त 1924 को उनका भी देहावसान हो गया। उस समय दीनदयाल 7 वर्ष के थे।
1926 में नाना चुन्नीलाल भी नहीं रहे। 1931 में पालन करने वाली मामी का निधन हो गया। 18 नवम्बर 1934 को अनुज शिवदयाल ने भी उपाध्याय जी का साथ सदा के लिए छोड़कर दुनिया से विदा ले ली। 1935 में स्नेहमयी नानी भी स्वर्ग सिधार गयीं। 19 वर्ष की अवस्था तक उपाध्याय जी ने मृत्यु-दर्शन से गहन साक्षात्कार कर लिया था।
8वीं की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उपाध्याय जी ने कल्याण हाईस्कूल, सीकर, राजस्थान से दसवीं की परीक्षा में बोर्ड में प्रथम स्थान प्राप्त किया। 1937 में पिलानी से इंटरमीडिएट की परीक्षा में पुनः बोर्ड में प्रथम स्थान प्राप्त किया। 1939 में कानपुर के सनातन धर्म कालेज से बी०ए० की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। अंगरेजी से एम०ए० करने के लिए सेंट जॉन्स कॉलेज आगरा में प्रवेश लिया और पूर्वार्द्ध में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। बीमार बहन रामादेवी की सुश्रुषा में लगे रहने के कारण उत्तरार्द्ध न कर सके। बहन की मृत्यु ने उन्हें झकझोर कर रख दिया।
मामाजी के बहुत आग्रह पर उन्होंने प्रशासनिक परीक्षा दी, उत्तीर्ण भी हुए किन्तु अंगरेज सरकार की नौकरी नहीं की। 1941 में प्रयाग से बी.टी. की परीक्षा उत्तीर्ण की। बी.ए.और बी.टी. करने के बाद भी उन्होंने नौकरी नहीं की। 1937 में जब वह कानपुर से बी०ए० कर थे, अपने सहपाठी बालुजी महाशब्दे की प्रेरणा से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सम्पर्क में आए। संघ के संस्थापक डॉ० हेडगेवार का सान्निध्य कानपुर में ही मिला। उपाध्याय जी ने पढ़ाई पूरी होने के बाद संघ का द्वितीय वर्ष का प्रशिक्षण पूर्ण किया और संघ के जीवनव्रती प्रचारक हो गए। आजीवन संघ के प्रचारक रहे। संघ के माध्यम से ही उपाध्याय जी राजनीति में आए।
21 अक्टूबर 1951 को डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की अध्यक्षता में ‘भारतीय जनसंघ’ की स्थापना हुई। गुरुजी (गोलवलकर जी) की प्रेरणा इसमें निहित थी। 1952 में इसका प्रथम अधिवेशन कानपुर में हुआ। उपाध्याय जी इस दल के महामंत्री बने। इस अधिवेशन में पारित 15 प्रस्तावों में से 7 उपाध्याय जी ने प्रस्तुत किए। डॉ. मुखर्जी ने उनकी कार्यकुशलता और क्षमता से प्रभावित होकर कहा- “यदि मुझे दो दीनदयाल मिल जाएं, तो मैं भारतीय राजनीति का नक्शा बदल दूँ।” 1967 तक उपाध्याय जी भारतीय जनसंघ के महामंत्री रहे। 1967 में कालीकट अधिवेशन में उपाध्याय जी भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। वह मात्र 43 दिन जनसंघ के अध्यक्ष रहे।
10/11 फरवरी 1968 की रात्रि में मुगलसराय स्टेशन पर उनकी हत्या? कर दी गई। 11 फरवरी को प्रातः पौने चार बजे सहायक स्टेशन मास्टर को खंभा नं. 1276 के पास कंकड़ पर पड़ी हुई लाश की सूचना मिली। शव प्लेटफार्म पर रखा गया तो लोगों की भीड़ में से चिल्लाया- “अरे, यह तो भारतीय संघ के अध्यक्ष दीन दयाल उपाध्याय हैं।” पूरे देश में शोक की लहर दौड़ गयी।