🔺करंट इश्यू/कीर्ति राणा 🔺
घर से श्मशान तक के रास्ते से लेकर मुखाग्नि देने तक जरा भी नहीं लगा कि किसी वीवीआयपी की मां की शवयात्रा है, या कि प्रधानमंत्री अंतिम यात्रा में शामिल हैं। अर्थी को कांधा देते प्रधानमंत्री मोदी पर वीडियोग्राफर ने फोकस नहीं किया होता तो यह अंदाज लगाना भी संभव नहीं होता कि नरेंद्र मोदी को गढ़ने और देश काम के लिए समर्पित करने वाली उनकी मां हीरा बेन की शवयात्रा है।
देश के प्रधानमंत्री की मां का निधन होने के बाद बेहद सादगी से शवयात्रा निकल सकती है, इस असंभव को संभव होते देखा है उसी भारत ने, जिसने एक चाय वाले को देश का प्रधान सेवक बनाया है। डिजिटल इंडिया वाले इस जमाने में जब शवयात्रा और शोकसभा मेगा इंवेट में शामिल हो चुकी हैं, ऐसे में इस सादगीपूर्ण शवयात्रा में बेहद सामान्य बेटे नजर आते रहे मोदी ने एक तरह से यह संदेश भी दिया है कि वे गुजरात के सामान्य नागरिक या चाय वाले ही होते तो भी मां को बिना तामझाम के ही तो ले जाना पड़ता।
आम बोलचाल में कहा जाता है ना कि नेताजी के पालतू की मौत हो जाए तो मुंह दिखाने के लिए शवयात्रा में शहर उमड़ पड़ता है। यहां तो सारे केंद्रीय मंत्रियों से लेकर मुख्यमंत्रियों को पहले ही मैसेज पहुंच गया था कि अपने काम में लगे रहें, आने की जरूरत नहीं है। न्यूज चैनल तो इसलिए शोक में डूबे हैं कि उनके हाथ से भी राष्ट्र रुदन का प्राइम टाइम फिसल गया। संजय दत्त की यरवदा जेल से रिहाई और घर पहुंचने तक चैनलों के रिपोर्टर हांपते-दौड़ते-लपकते रहे थे। सुशांत सिंह की असामयिक मौत से लेकर कोर्ट तक का आंखों देखा हाल सुनाने में पूरी ताकत झोंक दी थी। शाहरुख के बेटे के ड्रग केस में भी अखंड कीर्तन किया था।
प्रधानमंत्री की मां का निधन कब हुआ, यह सच तो अस्पताल ही जानता है लेकिन निधन की खबर भी देर रात (3.30 बजे)जारी होने से शोक संदेश की अतिवृष्टि भी नहीं हो सकी। अंतिम यात्रा को देखने-सुनने के लिए टीवी स्क्रीन पर लोग ठीक से आंख भी नहीं गड़ा पाए, उससे पहले तो मां की अंतिम विदाई का फर्ज पूरा कर नरेंद्र मोदी वंदे भारत ट्रेन को हरी झंडी दिखाने के साथ रूटीन काम करने लगे थे। उनकी इस कर्म-निष्ठा ने एक बार फिर साबित किया है कि ‘व्यक्ति’ से बड़ा ‘राष्ट्र’ और ‘मां’ से पहले ‘भारत माता’ होती है।
इससे पहले तक ऐसा शायद ही कोई मौका रहा हो, जब मोदी अपनी मां से मिलने, जन्मदिन की बधाई देने गए हों और जलकुकड़ों को मां से मिलने आए बेटे के इस स्नेह में नाटकबाजी नजर ना आई हो। विरोधियों को मौका मिल जाता था, मां-बेटे के उस मिलन में एक्टिंग, एक्शन और कैमरे के एंगल तलाशने का। कद-पद के भार से मुक्त एक बेटा मां को विदा करने पहुंचा तो उन लम्हों में कहीं आभास तक नहीं हुआ कि हीरा बेन को ग्लोबल लीडर कांधा देने आया है।
बेटा चाहे जितना बड़ा हो जाए, लेकिन मां के लिए वह सिर्फ बेटा ही रहता है-यह संदेश मोदी ने पूरे विश्व को दिया है। पद पर पहुंचने के बाद भी वे संस्कार नहीं भूले। यह भी याद दिलाया है कि मां को अंतिम विदाई देने का वक्त कठिनतम होता है किंतु ऐसे समय भी संयम रखना जरूरी है। उनकी इस सादगी ने अपरोक्ष रूप से यह संदेश भी दिया है कि दिवंगत आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना के साथ कर्म पथ पर चलना भी जरूरी है। मां के प्रति स्नेह-समर्पण के साथ देश के प्रति अपना कर्तव्य भी उन्होंने याद रखा है।
युवा मतदाता जो मोदी की हर बात को फॉलो करता हो, वह भला उनके इस संदेश को कैसे याद नहीं रखेगा। राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा यदि कल तक देश में चर्चा का कारण रही तो मां को अंतिम विदाई देते हुए प्रधानमंत्री की यह सहजता लोग भला कैसे याद नहीं रखेंगे। मोदी ने एकाधिक बार जब यह कहा कि इतना काम है कि वो अवकाश तक नहीं ले पाते। उनकी इस बात का खूब मजाक भी उड़ाया गया। खिल्ली उड़ाने वाले अब क्या कहेंगे?
भारतीय संस्कृति में कम से कम तीन दिन तो सूतक माना ही जाता है, यहां तो तीन घंटे बाद ही वो सक्रिय हो गए। मां तो हीरा बेन हैं ही, बेटे को दिए संस्कारों का ही प्रताप है कि दु:ख की बेला में भी कर्म को प्रधान मानने वाले नरेंद्र मोदी की चमक एक बार फिर हीरे सी तो हो ही गई है। उन्होंने राजनीति के सूरमाओं के लिए मिसाल भी कायम की है। मां को नमन।
(लेखक सांध्य दैनिक ‘हिंदुस्तान मेल’ के समूह संपादक हैं।)