“माँ”
तुम मेरी हो फिर भी मेरी क्यूँ नहीं,
तेरी गोद जो कभी मेरी थी,
वो गोद भी अब मेरी क्यूँ नहीं,
अपना अंगूठा मुँह में लेकर मुझे,
तेरा आँचल पकड़कर
फिर से तेरे पीछे चलना है,
काश में फिर से छोटी हो जाऊँ,
मुझे तेरी डाँट के साए में ही पलना है,
बड़े होने की ज़िद ने मुझे तुझसे दूर कर दिया,
ए ख़ुदा मैंने ऐसा क्या क़सूर कर दिया,
अब ज़िम्मेदारियों की ज़ंजीरों में
तेरी ही तरह उलझ सी गई हूँ मैं,
सम्भाल ले मुझे माँ, बिख़र सी गई हूँ मैं,
तेरे बिछड़ने का डर आजकल बहुत सताता है मां,
तेरे दूर जाने का ख़्याल भी मुझे
बहुत रुलाता है।
कीर्ति सिंह गौड़
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