आवश्यक सामग्री उपलब्ध कराने से लेकर दाह संस्कार ठीक से हो जाए, इसका भी रखती हैं ध्यान।
कोरोना काल भी सैकड़ों शवों का किया अंतिम संस्कार।
इंदौर : (राजेंद्र कोपरगांवकर) किसी भी इंसान का अंतिम पड़ाव मुक्तिधाम होता है, जहां उसकी नश्वर देह भी पंचतत्वों में विलीन हो जाती है। आमतौर पर ये परंपरा रही है की अंतिम यात्रा में महिलाएं श्मशान नहीं जाती। आज भी 99 फीसदी मामलों में यह परंपरा निभाई जाती है पर इसके बिल्कुल विपरीत दृश्य आपको नजर आए तो हैरानी होना स्वाभाविक है। जहां अंतिम यात्रा में महिलाओं का जाना वर्जित माना जाता है, वहां इंदौर में एक महिला समूचे श्मशान का प्रबंध सम्हालती है। वह चिता के लिए आवश्यक सामग्री ही मुहैया नहीं कराती, बल्कि चिता सजाने और दाह संस्कार ठीक से हो जाए, इसका भी ध्यान रखती है। यही नहीं उसका रहने – खाने का ठिकाना भी श्मशान ही है।
मालवा मिल मुक्तिधाम का संभालती हैं पूरा मैनेजमेंट।
इस महिला का नाम है विमलबाई। महज 07 वी पास विमलाबाई मालवा मिल मुक्तिधाम का पूरा मैनेजमेंट संभालती हैं। बीते 32 सालों में हजारों मृतदेहों के अंतिम संस्कार में हाथ बटा चुकी विमलाबाईं में बताती हैं कि पहले उनके पिता और भाई श्मशान का कामकाज देखते थे। उनके गुजरने के बाद उन्होंने इसी काम को अपना लिया। सन्नाटे और जलती चिताओं के बीच ही विमलाबाई का बसेरा है। वे श्मशान में रहती हैं और यहीं खाना बनाकर भी खाती हैं। कोई भी चिता अधजली न छूट जाए, इसका वे खास ध्यान रखती हैं।
कोरोना काल में भी रहीं मुस्तैद।
72 वर्षीय विमलाबाई बताती हैं कि कोरोना काल में जब अपने अपनों से ही दूर भाग रहे थे, उन्होंने यहां लाई गई कई लाशों का अंतिम संस्कार किया। कोरोना के संक्रमण की कभी उन्होंने चिंता नही की। शायद ये ईश्वर की ही कृपा रही की सैकड़ों कोरोना ग्रसित शवों का अंतिम संस्कार करने के बावजूद वे कभी संक्रमित नहीं हुई।
श्मशान में रहकर कभी डर नहीं लगा।
ये पूछने पर की रात के सन्नाटे में जब कोई पुरुष भी श्मशान में आना तो दूर उसके पास से गुजरने में भी डरता है, ऐसे में श्मशान में रहते हुए उन्हें डर नहीं लगता, विमलाबाई मुस्करा देती हैं। उन्होंने कहा कि वे कभी भयभीत नहीं हुई। डर शब्द उनके शबकोश में नहीं है। भूत, प्रेत, चुड़ैल जैसी अतृप्त आत्माओं की प्रचलित धारणाओं के बारे में विमलाबाई का कहना था कि इतने सालों में उन्हें कभी ऐसी कोई बात नजर नहीं आई और न ही कभी ऐसा महसूस हुआ।
विरासत में यही काम मिला, अपना लिया।
यही काम क्यों चुना इसपर विमलाबाई कहती हैं कि उन्हें विरासत में यह काम मिला तो अपना लिया। मृतदेहों को सद्गति मिल जाए, ये भी तो पुण्य का काम है। पूरा रिकॉर्ड भी मेंटेन करती हैं। विमलाबाई सिर्फ सिर्फ शवों के अंतिम संस्कार में ही योगदान नहीं देती, वे श्मशान का पूरा रिकॉर्ड भी मेंटेन करती हैं। मृतक का नाम – पता रजिस्टर में दर्ज करने से लेकर लकड़ी, घांस, कंडे और अन्य सभी सामग्री का भी वे बराबर रिकॉर्ड रखती हैं। क्षेत्रीय रहवासी भी विमलाबाई की श्मशान में दी जा रही है सेवा और निडरता की तारीफ करते हैं।
बहरहाल, विमलाबाई जैसी महिलाएं उदाहरण हैं, जो बताती हैं कि एक महिला के लिए कोई भी काम असंभव नहीं है। सामाजिक परिवेश जो भी हो पर हिम्मत और हौंसला हो तो महलाएं हर वो काम कर सकती हैं जिनपर पुरुषों का वर्चस्व रहता आया है।