कोरोना आलेख ।
# कीर्ति राणा #
इंदौर : मुंह पर दुपट्टा लपेटे या हिजाब पहने जब लड़कियां घूमा करती थीं तो इन्हें देखने वालों की चाहत होती थी किसी एक का चेहरा तो नजर आए। वो चांद से चेहरे तो एटीएम से पैसा निकालते हुए भी नहीं देख पाते थे कारण यह कि एटीएम में एक का ही प्रवेश जो रहता है।जब से ये कोरोना कर्फ्यू का कोहराम मचा हुआ है बिना मॉस्क वाला चेहरा चाहे जितना खूबसूरत हो, डराने लगा है।ऐसी दहशत बैठ गई है कि जेब में पर्स रखना भले ही भूल जाएं लेकिन मॉस्क लगाना तो याद रखना ही पड़ता है।
अब गर्मी शुरु हो गई है, कोल्ड ड्रिंक वाले विज्ञापन में फिर से ऋतिक ऊँची पहाड़ी से कूदता नजर आएगा और झरने के शोर के बीच साफ सुनाई देगा डर के आगे जीत है।पनवेल के फॉर्म हाउस में सलमान भाई भी डरे हुए बैठे हैं।
कुछ लोग हैं कि जिन्हें अपनी जात बिरादरी वाले सलमान भाई के डर से भी समझ नहीं आ रहा है कि ये वक्त बेमतलब की नफरत फैलाने का नहीं, घर में डर कर बैठने और बिना दौड़भाग किए जीत का जश्न मनाने का है।इस डर का अपने शायर बशीर बद्र साहब को तो दशकों पहले इल्हाम हो गया था कि 2020 में सोशल डिस्टेंस का तोहफा चाइना की सस्ती झालर और आतिशबाजी की तरह भारत को भी मिल जाएगा। जिस बोन चाइना वाले डिनर सेट स्टेटस सिंबल के चलते ब्याव-शादी में खूब भेंट करते रहे, मेड इन चाइना वाले उसी कोरोना ने अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप को भी चकरघिन्नी कर रखा है।फेसबुक पर राष्ट्र भक्ति की फर्जी कसमें खाते रहने के साथ ही पिछली दीवाली पर भी चाइना मेड झालरें तो खूब खरीदी थी लेकिन चीन से मुफ्त में दिए जा रहे कोरोना का प्रसाद कोई लेना ही नहीं चाहता।
चीन भले ही इतराए कि विश्व के देशों को कोरोना का ज्ञान कराने की वैश्विक जिम्मेदारी उसने निभाई है तो उसे भी यह समझ आ जाना चाहिए कि कोरोना को शिकस्त देने का फार्मूला हमारे शायर साहब तो बहुत पहले ही समझा चुके हैं कि ‘कोई हाथ भी ना मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से, ये नए मिजाज का शहर है, जरा फासले से मिला करो।” मेरा तो मानना है कोरोना से बचाव की हिदायतें जारी करने वाले विश्व स्वास्थ्य संगठन को बशीर बद्र की गजल के इस शेर को इंटरनेशल टैग लाइन घोषित कर देना चाहिए।
कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि ऐसा वक्त भी आएगा कि कोरोना का शिकार हुए पिता को कंधा देने से परिजन भी कतराएंगे। चैत्र नवरात्रि कब आई, गई पता ही नहीं चला। कई मंदिरों में अखंड ज्योत, नियमित पूजन तक नहीं हो सका। और तो और राम मंदिर निर्माण के फैसले के बाद आई पहली रामनवमी, हनुमान जयंती बिना शोभायात्रा और रात्रि जागरण के ही निकल गई।बिना भव्य जुलूस के जैनियों की महावीर जयंती कब घर घर मन गई और कब समझदार मुसलमानों ने बिना कब्रस्तान का रुख किए घरों में ही शब ए बारात की खानापूर्ति कर ली पता ही नहीं चला।कहां तो हम वसुधैव कुटुंबकं में विश्वास करने वाले, गाय-कुत्ते की रोटी निकालने वाले आस्थावान लोग और कहां विज्ञान के सिर चढ़ी महामारी के भय से घर में दुबक के बैठे लोग डोर बेल बजने पर ऐसे चमक जाते हैं कि कहीं कोरोना को नहीं आ गया। विश्व बंधुत्व की भावना वाले हम धर्मालुओं को इस विज्ञान ने हद दर्जे का सेल्फिश तो बना ही दिया। हालात ऐसे ही बने रहे तो नास्तिक भी बन जाएंगे।मैं और मेरा परिवार का ऐसा मोह पैदा कर दिया है कि राहत इंदौरी की सीख गांठ बांध ली है “बुलाती है मगर जाने का नइ,
ये दुनिया है इधर जाने का नइ।वबा (महामारी)
फैली हुई है हर तरफ, अभी माहौल मर जाने का नइ।”