🔺 दिलीप लोकरे🔺
60 पर आकर उम्मीदों को खत्म नहीं यूँ कर लेंगे,
कुछ तुम बतियाना हमसे, कुछ हम तुमसे बातें कर लेंगे।
अब तक तो जीते आएं हैं, माँ -बाप या बच्चों की खातिर,
अब कुछ तो समय निकालेंगे, कुछ अपने लिए भी जी लेंगे।
कितनी ही बातें थी मन में, जो सबसे करना चाहतें थें,
अब रोक नहीं कोई हम पर, वो सब बातें हम कर लेंगे।
तब पैसा जेब में ना होने पर, मन को कितना मारा था।
अब मन की एक पुकार पर, जेब का सारा पैसा ख़रचेंगे।
कालेज में बहुत अकड़ती थी, हम भी कहने में डरते थे,
अब मन में है इज़हार करें, जो मिल जाए तो कह देंगे।
वो ऑफिस का मनहूस समय, वह हेकड़ बॉस का गुस्साना,
अब मिल जाए गर रस्ते पर, सब उसकी तोंद में भर देंगे।
सब शर्म हया अब छोड़ दी, क्यों हम और किसी की फ़िक्र करें,
अब तक तो जिए हैं चिंता में, अब बेफिक्री से मर लेंगे।
कितनी ही बातें थी मन में, वो सब बातें हम कर लेंगे।
(कविता के लेखक दिलीप लोकरे वरिष्ठ पत्रकार और जाने- माने रंगमंच व फ़िल्म कलाकार भी हैं।)