साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित पुत्री कलापिनी कोमकली ने कुछ इस तरह याद किया अपने बाबा को।
🔹कीर्ति राणा🔹
अपनी विशिष्ठ गायन शैली के कारण ‘संगीत का कबीर’ उपनाम से भी पहचाने जाने वाले संगीत मनीषी पं. कुमार गंधर्व (देवास) की पुत्री शास्त्रीय गायिका कलापिनी कोमकली को वर्ष 2023 के प्रतिष्ठित संगीत नाटक अकादमी के राष्ट्रपति पुरस्कार के लिए हाल ही में राष्ट्रपति द्रोपदी मूर्मु ने सम्मानित किया है। यह सम्मान मिलने के बाद पहली बार उन्होंने इस सम्मान, अपने गायन और बाबा (पिता कुमार गंधर्व) से जो कुछ सीखा-समझा, बाबा की बीमारी से जुड़ी यादों को लेकर लंबी चर्चा की।
साहित्य अकादमी के सम्मान को लेकर उनका कहना था एक बार सम्मान हो जाए तो जगह जगह सम्मान कराने का हमारा संस्कार नहीं है।मैंने तो देवास में भी लगभग सभी को मना ही कर दिया था।बहुत खुश हूं तो इसलिए कि बाबा के जन्मशती वर्ष में यह पुरस्कार मिला है, सुखद बात है।मैं इसे बाबा-ताई (मां वसुंधरा कोमकली) के चरणों में पेश कर चुकी हूं।मैं यह भी जानती हूं मुझ से भी उम्दा कलाकार है जो इस सम्मान के हकदार है।सम्मान-पुरस्कार के बाद पैर जमीन पर होना जरूरी है क्यों कि मुझे पता है पुरस्कार के बाद मेरे हर काम को और अलग नजर से देखा जाएगा।
कुमार जी के जन्मशती वर्ष (जन्म 14 अप्रैल 1924 ) को किस तरह मनाया जाए इस पर 2022 से काम कर रही थीं। जिस तरह से कुमारजी का संगीत, व्यक्तित्व, सोच और कला को देखने का जो अल्हदा नजरिया रहा है तो उसी तरह पूरे वर्ष में काम करना था, वरना तो बहुत आसान है कि मैं, ताई और भुवनेश देश के विभिन्न क्षेत्रों में कार्यक्रम पेश कर सकते थे। ऐसे कुछ कार्यक्रम कर देने से शताब्दी पूरी नहीं हो सकती। सभी कला के कलाकारों की शिरकत ना हो, शताब्दी आकार नहीं ले सकती। केवल उनके शिष्यों को लेकर भी शताब्दी का उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता। हर घराने के उम्दा कलाकारों को लोगों के सामने ला सकूं।दूसरे घराने के कलाकारों की अच्छाइयों को भी आत्मसात करना चाहिए। बाबा के गायन-उनके व्यक्तित्व के संस्कार बच्चों को देने के उद्देश्य से मराठी, हिंदी, अंग्रेजी में तीन किताब लिखीं हैं, ये तीनों किताबें सचित्र हैं।एक किताब ‘कुमार एक गंधर्व स्वर’ माधवी पुरंदरे ने मराठी और हिंदी में लिखी है।सोपान जोशी ने ‘शिवपुत्र एक गंधर्व कथा’ लिखी है।
मराठी पुस्तक की एक और खासियत है।उसमें बाबा की उनकी बंदिशों का क्यूआर कोड दिया हुआ है, बचचे किताब पढ़ने के दौरान कोड को स्कैन करने पर उनकी बंदिशें सुन भी सकते हैं।भारत में अपने किस्म का यह पहला प्रयोग है।बच्चों के लिए किताब इसलिए कि उन्हें बचपन से ही संगीत के संस्कार मिलें। आज की दुनिया में हम बच्चों को क्या दे रहे हैं।हम बच्चों को कलाकार के संघर्ष उनकी साधना जानकारी नहीं दे पा रहे हैं।कुमार जी कठिनाइयों से जूझ कर फिर कैसे उठ खड़े हुए यह बात बच्चों को पता चलना चाहिए। बच्चे सक्सेस के पीछ तो दौड़ते हैं लेकिन उन्हें असफलता पता नहीं है-उन्हें यह पता चलना जरूरी है।
बाबा के संघर्ष और सफलता को लेकर उनका कहना था उन्हें तपेदिक ने घेर लिया था।उपचार-एक्सरे आदि के लिए बार बार मुंबई जाना संभव नहीं था।डॉ एमडी देशमुख मुंबई के थे उनके संबंधी थे डॉ ऋषि, जो इंदौर में रहते थे, उनके पास एक्सरे निकालने के लिए बाबा को आना पड़ता था।रामू भैया दाते उन्हें पुत्रवत स्नेह करते थे, यात्रा के इस झंझट से बचाने के लिए उन्होंने ही कहा था तुम चिंता मत करो देवास आ जाओ।वो आ तो गए लेकिन रामू भैया कि पत्नी को चिंता रहती थी कि कुमार जी के निरंतर घर आने से उनके दोनों पुत्रों अरुण, रवि दाते को यह रोग ना घेर ले।पत्नी ने चिंता जाहिर भी कि कहीं रवि को रोग ना हो जाए, रामू दाते ने पत्नी को कहा था इस एक कुमार पर मेरे दस रवि न्यौछावर है।
कुमार जी के संगीत की खासियत को लेकर कलापिनी का कहना था राघव मेनन ने अपनी किताब में कुमार जी के पहले और उनके बाद के संगीत को नितांत अलग बताया है। कुमार जी के पहले तक परंपरागत संगीत की परिपाटी रही । कुमार जी की शिष्यों को लेकर सोच रही कि गुरु से जो पाया है वह तो ठीक लेकिन तुम अपना भी तो कुछ करो।बाबा को लेकर कहा जाता है कि वो विद्रोही कलाकार हैं, वो कैसे थे विद्रोही? उन्होंने राग बदले क्या? हमारा मित्र कहीं जा रहा है तो हम उसे पीछे से साइड से नहीं देख सकते क्या? बस पारंपरिक रागों में उन्होंने यही बदलाव किया। वो शिष्य पैदा करने वाली फैक्टरी नहीं थे वो अपने शिष्यों में देखने की, सोचने की, विचार की ताकत पैदा करते थे। आज एक कलाकार जो अलग अलग कलाकारों की खासियत को पेश करने की कोशिश करता है, यह बदलाव तीस-चालीस साल पहले कुमारजी ने किया। किसी कलाकार की नकल करने की अपेक्षा उसमें कुछ नया कर के कैसे आगे निकलते हो यह सिखाते थे बाबा। क्राफ्ट और कला में फर्क कुमार जी ने सिखाया।
जब तपेदिक हावी था बाबा चाह कर भी गा नहीं पाते थे।उनके इस संघर्ष का गवाह था देवास का लाल बंगला। बाबा ठीक से करवट नहीं ले पाते थे, सो भी नहीं पाते थे। वहीं सामने एक पेड़ पर एक चिड़िया ने घोंसला बनाया था. वह इस कदर चहकती थी कि सोने में बाधा उत्पन्न हो जाती थी. कुमार जी ने सोचा कि एक नन्ही-सी चिड़िया में इतनी ताकत है कि वह मुझे सोने नहीं देती, तो क्या मैं पुनः गायन नहीं कर सकता।उस मौन की वजह से उनकी संगीत में बड़ा परिवर्तन आया। उन्होंने इस दौरान मालवा की लोक गायिकी को ढूंढ़ा, उनमें रागों के मेल पर शोध कार्य किया। मौन के दौर में किये उस शोधकार्य का उन्होंने गले से इजहार भी किया। खास बात है कि छह वर्षों तक गायन से दूर रहने और तपेदिक की पीड़ा को झेलकर उससे उबरने के बाद भी उनके संगीत में कोई कड़वाहट नहीं आयी. उनकी संगीत से आनंद झर रहा था। कुमार गंधर्व जब तक जीवित रहे, संगीत से उनका नाता नहीं टूटा. कबीर को बार-बार पढ़ने पर अलग-अलग अर्थ खुलते हैं, वैसे ही कुमार जी का गायन बार-बार सुनने पर विशिष्ट अनुभव ही होता है।
कबीर की तरफ कैसे मुड़े..
उनके जीवन का जो देवास आने के बाद संघर्ष था लाल बंगले में रहते थे। बाबा लेटे रहते थे उनके कानों पर मालवा का निर्गुण पड़ा उसे ही अपने स्तर पर बदलाव करते हुए गाया। वो जिंदगी का जिस तरह सामना कर रहे थे कबीर की वाणी उन्हें अंदर तक प्रभावित कर रही थी। कबीर की पंक्तियां उन्हें अपनी लड़ाई में ज्यादा नजदीक लग रही होगी। कबीर के गीतों में उन्हें अपनापन लगता था ‘निर्भय निर्गुण गाउंगा रे’….।
बच्चों को घरों में संगीत सुनाएं।
शास्त्रीय संगीत से युवा वर्ग क्यों दूर हो रहा है, इस सवाल पर उननका कहना था आप को घरों में संगीत सुनना शुरु करना पड़ेगा, आकाशवाणी सुनना पड़ेगा।बचपन में हम रेडियो की सुबह की सभा सुन कर ही स्कूल जाते थे।बच्चों के कानों में संगीत पड़ेगा तो धीरे धीरे पसंद आएगा।उन्हें संस्कार देना महत्वपूर्ण है।हमें संगीत की तालीम देने में बाबा ने कोई रियायत नहीं की। हां बेटी होने का थोड़ा सा लाभ मिला था लेकिन बाबा बहुत सख्त थे। गुरु के नाम पर वह धब्बा-गिलगिला बन कर बैठे रहने के पक्ष में नहीं थे।मुझे शुरुआत में एक घंटे तक तानपुरा बजाने को कहा, हाथ दर्द करने लगता था। तानपुरा बजाने का शास्त्र उन्होंने गढ़ा था।उनका सिखाना इतना एब्स्ट्रेक्ट होता था मेरे सिर से ऊपर जाता था। आई मुझे समझाती थी, उत्साह बढ़ाती थी। गीत वर्षा का कार्यक्रम मुंबई में था। उस स्पेशल प्रोग्राम में मैंने उनके साथ गाया था। कार्यक्रम सम्पन्न हुआ मैं चाहती थी वो कुछ बोलें लेकिन बाबा ने मेरे गायन को लेकर एक शब्द नहीं कहा।सब को अचरज लग रहा था। उनसे सब ने पूछा उसने गाया आप ने कुछ कहा नहीं। वो कुछ पल चुप रहे फिर बोले मैं सौ में से सौ नंबर देता हूं।
गौरतलब है कि कर्नाटक के धारवाड़ इलाके में 8 अप्रैल 1924 को जन्मे शिवपुत्र सिद्धराम कोमकली (अवसान 12 जनवरी 1992) कुमार गंधर्व के नाम से प्रसिद्ध थे। सन 1977 में भारत सरकार द्वारा कला के क्षेत्र में उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।
उनमें नैसर्गिक प्रतिभा थी और दस-ग्यारह वर्ष की उम्र में ही उनकी प्रसिद्धि फैल गई थी।प्रोफेसर बी आर देवधर उनके गुरु थे, जो अपने शिष्यों को एक अलग रास्ता अख्तियार करने को प्रेरित करते थे। कुमार गंधर्व ने जहाँ मालवी गीतों को राग दरबारी ढंग से गाकर नए आयाम दिए, वहीं सूर, तुलसी, कबीर और मीरा के पदों को गाकर उन्हें जन सामान्य तक स्वर सरिता के माध्यम से प्रेषित किया। राग मालवती, लग्न गंधार सहेली तोड़ी और गांधी मल्हार रागों की रचना की। अनूप राग-विलास’ नामक पुस्तक लिखकर संगीत प्रेमियों को संगीत की सीख भी दी।