जीवनभर पीड़ितों के हक़ की लड़ाई लड़ते रहे तपन भाई..

  
Last Updated:  December 28, 2018 " 12:50 pm"

इंदौर: दो- तीन दिन पहले ही पता पड़ा था कि समाजसेवी तपन भट्टाचार्य निजी अस्पताल में भर्ती हैं। मेरे लिए वे हमेशा बड़े भाई की तरह रहे हैं। मैने अपने मित्र राजू पंवार से कहा था कि अस्पताल जाकर तपन भाई की कुशलक्षेम पूछनी है। गुरुवार को जाना तय भी था पर कुछ कारणवश हम नहीं जा पाए।
शुक्रवार ( 28 दिसंबर ) को सुबह उठते ही सोच लिया था कि आज तपन भाई से मिलने जाना ही है। नहा- धोकर घर से निकल प्रेस क्लब पहुंचा। शहर का हालचाल जानने व्हाट्सएप खोला ही था कि एक ग्रुप में मैसेज पढ़कर मन सुन्न हो गया। दो लाइन के उस मैसेज में लिखा था समाजसेवी ‘ तपन भट्टाचार्य नहीं रहे। एक बार तो विश्वास ही नहीं हुआ पर बाद में अन्य स्रोतों से पता किया तो खबर की पुष्टि हो गई। मन में रह- रह कर टीस उठती रही कि काश.. उनसे जाकर मिल लेता।
बीते वर्ष दीपावली के बाद तपन जी के घर जाना हुआ था। भाभीजी से भी मुलाकात हुई थी। तब पता चला था कि वे बीमार हो गए थे। ठीक होने के बाद उन्होंने फिर अपने कामकाज और समाजसेवा की ओर ध्यान देना शुरू कर दिया था। हालांकि खान पान को लेकर वे सतर्क रहते थे। अभी चुनाव के पहले भी उनसे मिलने का मौका मिला था। तत्कालीन राजनीतिक हालातो पर उनसे चर्चा हुई थी हालांकि राजनीति से ज्यादा समाजसेवा उन्हें रास आती थी।
छात्र नेता के रूप में अपने राजनीतिक- सामाजिक जीवन की शुरुआत करने वाले तपन भाई प्रखर वक्ता भी थे। पीड़ितों, शोषितों के हक़ में वे सदा अपनी आवाज बुलंद किया करते थे। वे किसी विचारधारा से जुड़े हुए नहीं थे पर खुद को समाजवादी सोच के ज्यादा निकट पाते थे। सत्ता की सियासत उन्हें कभी रास नहीं आयी। वे चाहते तो कांग्रेस का दामन थामकर विधायक और मंत्री बन सकते थे। उनके तमाम समकालीन नेता ये सब हासिल कर चुके हैं। पर तपन भाई पद के पीछे कभी नहीं भागे। पूर्व पीएम चंद्रशेखर से उनका गहरा जुड़ाव रहा और उन्हीं की पार्टी के बैनर तले वे लोकसभा का चुनाव भी लड़े थे। शुरुआती दौर में वे कॉलेज में लेक्चरर भी बने पर बाद में नौकरी छोड़कर ‘ लिपिका’ के नाम से अपनी प्रिंटिंग प्रेस शुरू कर ली। उसी के साथ ‘ प्रदेश वार्ता’ के नाम से उन्होंने अपना साप्ताहिक अखबार भी शुरू किया। लगभग रोज ही उनकी प्रिंटिंग प्रेस पर राजनेता, बुद्धिजीवी और पत्रकारों का जमघट लगा रहता था। उनके चाय- पान की जिम्मेदारी जाहिर तौर पर तपन भाई उठाते थे। कॉलेज में पढ़ने के साथ कुछ पैसे कमाने के लिए मैं तपन भाई के साथ जुड़ गया। स्टेशनरी प्रिंटिंग के आर्डर लेकर मैं तपन भाई की प्रेस में छपवाता था और उसकी डिलीवरी करता था। मेरे पास पैसे होते नहीं थे तो कागज लाने से लेकर छापने का जिम्मा तपन भाई खुशी- खुशी उठाते थे। उन्होंने मुझे हमेशा अपने छोटे भाई की तरह ही समझा। पढ़ाई के बाद इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़ जाने के कारण मेरा उनके यहां जाना कम हो गया। प्रिंटिंग प्रेस के साथ तपन भाई एनजीओ के जरिये गरीब आदिवासियों के बीच भी काम करने लगे थे। जहां भी किसी के साथ अन्याय होता देखते वे उसकी लड़ाई लड़ने पहुंच जाते। नर्मदा घाटी के विस्थापितों की हक़ लड़ाई में भी वे भागीदार रहे। इंदौरी होने के नाते इस शहर और यहां के बाशिंदों की लड़ाई लड़ने के लिए वे सदैव तत्पर रहते थे। सड़क चौड़ीकरण के नाम पर जब लोगों के वैध मकानों को तोड़ा जा रहा था तब तपन भट्टाचार्य ही थे जिन्होंने नागरिक समिति के बैनर तले उसका पुरजोर विरोध किया था। वे विकास के नाम पर लोगों को बेघर करने के विरोधी थे। हाइकोर्ट में भी तोड़फोड़ के खिलाफ पीड़ितों की लड़ाई उन्होंने लड़ी थी। शहर हित में कोई भी आंदोलन हो उसमें तपन भाई सक्रिय भागीदारी जताते थे। हाल ही के दिनों में उनकी सक्रियता कम जरूर हो गई थी पर वे इसतरह हमें छोड़कर अनंत यात्रा पर चले जाएंगे इसका आभास तक नहीं था। तपन भाई आप भले ही चले गए हों पर हमारे दिल में हमारी यादों में सदैव जिंदा रहोगे।
ओम शांति…

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