*कीर्ति राणा*
इंदौर : इस बार नहीं हो पाए लेकिन नागपंचमी पर होने वाले निशुल्क दंगल का शहर के कुश्ती प्रेमियों को बेसब्री से इंतजार रहता था।छोटा नेहरु स्टेडियम ही नहीं बाणगंगा -कुम्हारखाड़ी-स्थित नाले के बड़े गड्ढे वाले क्षेत्र में (जहां अब ब्रजलाल उस्ताद एरिना निर्मित है) दोपहर से ही दंगल प्रेमी जुटने लग जाते थे लेकिन कोरोना ने त्योहारों की रौनक फीकी करने के साथ नाग पंचमी पर होने वाले नि:शुल्क दंगल का उत्साह भी ठंडा कर दिया।यही कारण है कि दंगल वाले पारंपरिक क्षेत्रों में नागपंचमी पर केवल अखाड़ा पूजन हुआ और प्रतीकात्मक कुश्ती लड़ी गई। शहर में होने वाले दंगल खासे लोकप्रिय रहने का अंदाजा इससे ही लगाया जा सकता है कि आसपास के क्षेत्रों के पहलवान अपने खर्चे से दंगल में भाग लेने आते थे। खड़ी जोड़ में पहलवान से दर्शकों में शामिल कोई भी पहलवान लड़ सकता था।आज के युवा तो मोबाइल पर डब्ल्यू डब्ल्यू एफ चैनल पर ही पहलवानों को लड़ते देख कर खुश हो जाते हैं। इन्हें तो यह जानकर ही आश्चर्य होगा कि छत्रीबाग में नि:शुल्क होने वाले दंगल को देखने 10 हजार दर्शक जुटते थे ।पांच दशक पहले छत्रीबाग, कुम्हारखाड़ी पर नागपंचमी मेले की रौनक ही दंगल के कारण रहती थी।
नागपंचमी पर सुबह से ही पिलाओ नाग को दूध, पिलाओ जोड़े को दूध की आवाज लगाते सपेरे सुबह से ही गली-मोहल्ले गुंजा देते थे। वन्य प्राणी अधिनियम की बढ़ती सख्ती के कारण जोड़े की पूजा तो दूर अब सिंगल नाग की पूजा के लिए भी इंतजार करना पड़ता है।कई बार तो पूजन के लिए नाग फिर भी नहीं मिलते।बचपन में पांचवी कक्षा तक हिंदी की किताब में ‘नागपंचमी’ वाली कविता आधी-अधूरी अभिभावकों को तो याद होगी लेकिन पब्लिक स्कूल वाले उनके बच्चों को इस जमाने की राइम रटी हुई हैं।
सौ साल से कुम्हारखाड़ी में मेला और दंगल होते रहे, इस बार कोरोना का असर।
कुम्हारखाड़ी में प्राचीनतम नागमंदिर पर हर साल मेला भराता था। बाणेश्वरी ट्रेवल्स वाले बद्री दीक्षित (60) बताते हैं करीब सौ साल से मेला-दंगल की परंपरा तो हमारे पिताजी बताते रहे हैं।अब तो उस जगह पर एरिना बन गया है पहले ब्रजलाल उस्ताद व्यायामशाला के गुरु प्रसाद पहलवान गोली-बिस्कुट के ईनाम पर बच्चों की कुश्ती कराते थे। आसपास के नामी पहलवान भी दंगल में अपना हुनर दिखाने आते थे।अब व्यायामशाला के खलीफा उनके पुत्र नर्मदा पहलवान, चाचा कैलाश कश्यप आसपास के बच्चों को पहलवानी के गुर सिखा रहे हैं।इस साल तो कोरोना के चलते सिर्फ अखाड़े में शनिवार की शाम पूजन किया गया लेकिन हर साल होने वाले दंगल में पूर्व विधायक (स्व) रामलाल यादव भल्लू, विष्णु प्रसाद शुक्ला बड़े भैया, भाजपा नेता गोलू शुक्ला, सपा नेता मूलचंद यादव बंते आदि का सहयोग मिलता रहता है।
एक साथ 10-15 कुश्ती जीती छत्रीबाग मेले में।
मुराई मोहल्ला निवासी पहलवान गम्मू कुरैशी को ‘काला चीता’ के नाम से जानने वालों की भी कमीं नहीं है।मेला मैदान छत्रीबाग (जहां अब सैफी स्कूल, आसपास मकान बन चुके हैं) में दंगल देखने कम से कम 10 हजार की भीड़ जुटती थी।इंदौर के साथ ही उज्जैन व आसपास के शहरों के पहलवान भी लड़ने आते थे।10-15 कुश्ती तो अकेला मैं ही लड़ लेता था। पहलवान मैदान में घूमते थे, खम ठोकते, चैलेज करते, लड़ने के लिए जो मैदान में उतरता उससे हाथ मिलाते और कुश्ती लड़ते। जो जीत जाता उसे दूध-खुराक के ईनाम के बतौर दर्शकों में से कोई एक रुपया, दो, पांच रु ईनाम देता था।वजन से तब कुश्ती नहीं होती थी।पहलवानी के जानकार देवी पहलवान, हाजी नासिर कुरैशी पहलवान, रतन पाटोदी रैफरी हुआ करते थे। सनावद, चोरल, बड़वाह आदि शहरों में भी दंगलों में जीतकर आया।एक बार अहमदाबाद में राम अचल पहलवान से दंगल के लिए गया, वहां जिस होटल में ठहरा था, दूसरी सुबह सैकड़ों लोग सड़क पर ‘काला चीता’ बाहर आओ की आवाज लगाते इकट्ठा हो गए।घबराया हुआ मैनेजर मेरे रूम में आकर बोला पहलवान खिड़की से हाथ हिलाकर हैलो कर लो, सब एक नजर देखना चाहते हैं।मेरी खुराक बादाम, दूध, रबड़ी, फल, अंडे, घी करीब सौ रु रोज होती थी।मेरा पोता शाकिब कुरैशी विजय बहादुर व्यायामशाला में पहलवानी के गुर सीख रहा है।अब तो 500 रु भी कम पड़ते हैं पहलवानी करने वालों को।तब पहलवानों और दंगल कराने वालों के बीच हिंदू-मुस्लिम वाली नफरत नहीं थी, अब तो प्रशासन ने ही क्रास कुश्ती पर पाबंदी लगा रखी है।
सुशील कुमार पहलवान का सम्मान और एक लाख रु की सम्मान निधि भेंट करने के साथ ही हर साल तीन दिनी सितारा-ए-हिंद दंगल कराने वाले गम्मू कुरैशी को बॉस्केटबाल काम्प्लेक्स में पहली इंटरनेशनल कुश्ती कराने का भी श्रेय जाता है।
पहलवानों को प्लाइट से लाते थे शहाबुद्दीन पहलवान।
विजय बहादुर व्यायामशाला के शागिर्द रहे (स्व) हाजी शहाबुद्दीन कुरैशी को अन्य राज्यों के बड़े पहलवानों को फ्लाइट से इंदौर लाने का श्रेय जाता है। उनके पुत्र मो अजीज(अज्जू भाई) बताते हैं नाग पंचमी मेले के साथ ही साल भर दंगल होते रहते थे।होल्कर महाराज के रियासती पहलवानों में गम्मू पहलवान, गुलाम नबी पहलवान रुस्तमे मालवा थे।दंगल के लिए अब्बा बड़े और छोटे गामा, सतपाल पहलवान, शिवाजी पाचपोते, नफीसुल हसन, बाबू तूफान, इक्का पहलवान, अमीन पहलवान को फ्लाइट से इंदौर बुलवाते थे। नेहरु स्टेडियम में दंगल निशुल्क हुआ करते थे।
फोटो : नारायण सिंह पहलवान बाहूबली व्यायामशाला।
छोटा स्टेडियम का उदघाटन 1973 में उपराष्ट्रपति ने किया, पहली कुश्ती हुई कोल्हापुर-इंदौर के पहलवान में
क्रॉस कुश्ती की अनुमति नहीं देने पर कुश्ती निरस्त कर दी थी- नारायण सिंह यादव ।
कड़ाबीन स्थित बाहुबली व्यायामशाला के संचालक पहलवान नारायण सिंह कुशवाह कहते हैं महाराजा तुकोजीराव होल्कर ने कुश्ती और पहलवानों को खूब सम्मान दिया।यही वजह रही कि छत्रीबाग वाले मेला मैदान में बाहर के पहलवान भी लड़ने आते रहे।किशनपुरा पुल के नीचे नदी वाले मैदान, बाणगंगा, किला मैदान, कंडेलपुरा, बड़ा गणपति, श्रमिक क्षेत्र के साथ ही आसपास के शहरों में भी नागपंचमी पर दंगलों की धूम रहती थी।
बड़े भाई (स्व) बनवारी लाल यादव मप्र कुश्ती परिषद के अध्यक्ष रहे, खूब पहलवान तैयार किए।उनके निधन पश्चात स्मृति में हर साल इंदौर भीम दंगल स्पर्धा कराने वाले-कुश्ती परिषद के महामंत्री नारायण सिंह यादव मानते हैं कि दंगल की लोकप्रियता के चलते ही नगर निगम ने छोटा नेहरु स्टेडियम पहलवानों के लिए निर्मित किया।1973 में इसका उदघाटन करने तत्कालीन उप राष्ट्रपति आए थे।इस स्टेडियम में पहली कुश्ती कोल्हापुर के सदाशिव पाटिल और इंदौर के छोटा रतन पहलवान के बीच हुई थी।यहां देश भर के पहलवानों के बीच खुली स्पर्धा होती थी। ओपन वेट में जीतने वाले को बुर्ज और नकद राशि भेंट की जाती थी। ये दंगल के प्रति जुनून ही रहा कि शहर में कुश्ती आयोजित करने वाले ठेकेदार भागीरथ दादा, राम स्वरूप गुरु, मच्छी बाजार वाले बेनी भैया, छोटी ग्वालटोली वाले हाजी शहाबुद्दीन कुरैशी, सैयद कुरैशी अपने खर्चे पर बाहर से पहलवानों को बुलाते थे, बाकी खर्चा अखाड़े वाले और संस्थाएं उठाती थीं।नागपंचमी पर होने वाले दंगल के ओम प्रकाश खत्री, गोपाल पहलवान, महापौर केसरी के सचिन यादव, रमेश यादव और इंदौर भीम केसरी दंगल के रैफरी विजय यादव, अजय यादव, मुन्ना बौरासी,कोच वेदप्रकाश रहते थे।इन आयोजनों में पूर्व मंत्री महेश जोशी, कृपाशंकर शुक्ला, आरसी सलवाड़िया, खजराना वाले ओम प्रकाश वर्मा पहलवान का सहयोग मिलता रहा।
2011 में कुश्ती परिषद ने इंदौर में क्रॉस कुश्ती कराने की घोषणा की लेकिन जिला प्रशासन ने अनुमति नहीं दी तो कुश्ती ही निरस्त कर दी। यादव का कहना है प्रशासन के ऐसे ही रुख से दंगल का उत्साह खत्म हो रहा है। यादव और ऑल इंडिया गोल्ड मेडल विजेता-इंदौर केसरी रमेश यादव का कहना है देवास, महू, उज्जैन में क्रॉस कुश्ती हो सकती है तो इंदौर में 30 साल से अनुमति क्यों नहीं।छोटा स्टेडियम को इन डोर स्टेडियम बनाने की मांग मधुकर वर्मा से लेकर महापौर रही मालिनी गौड़ तक से कर चुके हैं, किसी की दिलचस्पी नहीं है। इससे पहले तक ग्वालटोली में लेखराज एरिना में लकड़ी की गैलरी में 20,50,100रु के टिकट लेकर देखते थे।
नागपंचमी की छुट्टी बंद करने से भी अखाड़ा और दंगल संस्कृति पर असर पड़ा।
कुश्ती विधा के जानकारों का कहना है कि शासन द्वारा नागपंचमी की छुट्टी बंद करने से भी अखाड़ा-दंगल संस्कृति प्रभावित हुई है। शासकीय अवकाश होने से स्कूलों और शहर में जगह-जगह दंगल होते थे। आज के युवा आधुनिक जिमनेजियम में अधिक पैसा खर्च कर शरीर को स्वस्थ रखने के लिए व्यायाम करते हैं। शरीर सौष्ठव के पहलवान मसल्स बनाने के टॉनिक लेते हैं। इसके विपरीत मिट्टी वाले अखाड़ों में वर्जिश करना अधिक फायदेमंद होता है।
तांगों से प्रचार होता था दंगल में आने वाले पहलवानों का।
अखाड़ों से जुड़े रहे बुजुर्ग पहलवान बताते हैं इंदौर में तब तो तांगे ही चलते थे। तांगों में भोंगे बांधकर माइक से प्रचार होता था दंगल में भाग लेने वाले पहलवानों का, फिर पर्चे भी छपने लगे, बाद में प्रमुख चौराहों पर होर्डिंग्ज लगाए जाने लगे। अब तो अखबारों, लोकल चैनल से प्रचार होने लगा है। एक समय था जब कुश्ती कला के क्षेत्र में इंदौर का नाम मप्र में चर्चा में रहता था।विभिन्न प्रांतों के नामचीन पहलवानों के ठहरने का इंतजाम छोटी ग्वालटोली क्षेत्र की होटलों में रहता था।। पहलवानों के बाहर से आने से कुश्ती के अलग-अलग दांव शहर के पहलवानों को भी सीखने को मिलते थे।
‘नागपंचमी’ वाली इस कविता के बिना
तो दंगलों की बात अधूरी ही रहेगी।
“सूरज के आते भोर हुआ
लाठी लेझिम का शोर हुआ
यह नागपंचमी झम्मक-झम
यह ढोल-ढमाका ढम्मक-ढम
मल्लों की जब टोली निकली
यह चर्चा फैली गली-गली
दंगल हो रहा अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े में।।
सुन समाचार दुनिया धाई,
थी रेलपेल आवाजाई।
यह पहलवान अम्बाले का,
यह पहलवान पटियाले का।
ये दोनों दूर विदेशों में,
लड़ आए हैं परदेशों में।
देखो ये ठठ के ठठ धाए
अटपट चलते उद्भट आए
थी भारी भीड़ अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े में
वे गौर सलोने रंग लिये,
अरमान विजय का संग लिये।
कुछ हंसते से मुस्काते से,
मूछों पर ताव जमाते से।
जब मांसपेशियां बल खातीं,
तन पर मछलियां उछल आतीं।
थी भारी भीड़ अखाड़े में,
चंदन चाचा के बाड़े में॥
यह कुश्ती एक अजब रंग की,
यह कुश्ती एक गजब ढंग की।
देखो देखो ये मचा शोर,
ये उठा पटक ये लगा जोर।
यह दांव लगाया जब डट कर,
वह साफ बचा तिरछा कट कर।
जब यहां लगी टंगड़ी अंटी,
बज गई वहां घन-घन घंटी।
भगदड़ सी मची अखाड़े में,
चंदन चाचा के बाड़े में॥
वे भरी भुजाएं, भरे वक्ष
वे दांव-पेंच में कुशल-दक्ष
जब मांसपेशियां बल खातीं
तन पर मछलियां उछल जातीं
कुछ हंसते-से मुस्काते-से
मस्ती का मान घटाते-से
मूंछों पर ताव जमाते-से
अलबेले भाव जगाते-से
वे गौर, सलोने रंग लिये
अरमान विजय का संग लिये
दो उतरे मल्ल अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े में
तालें ठोकीं, हुंकार उठी
अजगर जैसी फुंकार उठी
लिपटे भुज से भुज अचल-अटल
दो बबर शेर जुट गए सबल
बजता ज्यों ढोल-ढमाका था
भिड़ता बांके से बांका था
यों बल से बल था टकराता
था लगता दांव, उखड़ जाता
जब मारा कलाजंघ कस कर
सब दंग कि वह निकला बच कर
बगली उसने मारी डट कर
वह साफ बचा तिरछा कट कर
दंगल हो रहा अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े में।”