माँ शब्द में छिपा कितना सुंदर एहसास है।
नौ महीने का ज्यादा जुड़ाव बनाता इसे खास है॥
मैं बचपन में हमेशा करना चाहती थी मनमानी।
पर माँ कोशिश करती की मैं बनु जल्दी से सयानी॥
जरा सी तबीयत बिगड़ने पर तुरंत नजर उतारती है।
मेरी जरा सी खुशी पर पता नहीं क्या-क्या वारती है॥
मेरी नाराजगी भी उसके लिए प्यार का भाव है।
मेरी सदैव चिंता करना यही उसका सरल स्वभाव है॥
मैं कभी-कभी जिद्दी बन देती उसे उलाहना।
पर वो सदैव चाहती मुझे प्यार से संभालना॥
मुझे परेशानी में देख तुरंत ईश्वर को मनाती है।
यहीं कोमल स्वभाव तो मुझे उसके और भी करीब लाती है॥
मेरी हर बीमारी के लिए उसके हाथ में संजीवनी है।
ईश्वर की इस सृष्टि में वह तो प्रत्यक्ष भगवान बनी है॥
मैंने तो मनमानी (लात मारना) कोख में ही शुरू कर दी थी।
पर फिर भी मैं उसकी सबसे सुंदर और प्यारी दुनिया थी॥
मेरे लिए प्रसवपीड़ा भी मुस्कुराते हुए उठाई।
दिन-रात के कालचक्र में मेरी देखरेख ही उसे भाई॥
मेरे गर्भ में आते ही अपनी पसंद-नापसंद भूल गई।
मेरी उन्नति के चक्र में तो वह थक कर बैठना भूल गई॥
मैं तो आजतक भी माँ को यूंही सताती हूँ।
रूठकर अपनी हर बात मनवाती हूँ और इठलाती हूँ॥
मनोभावों को पढ़ने का हुनर पता नहीं माँ को कहाँ से आता है।
जो मेरे मन की हर थाह को तुरंत भाप जाता है॥
मेरी माँ को रूठने का गुण नहीं आता।
और मेरा दु:ख तो उसे स्वप्न में भी रास नहीं आता॥
जब पहली बार वह मेरे आने को जान पाई।
उसी दिन से उसने अपनी सारी दुआएँ मुझ पर लुटाई॥
डॉ. रीना कहती माँ तो एहसासों की अतुलनीय अनुभूति है॥
माँ के बिना तो जीवन मात्र रिक्ति है॥
डॉ. रीना रवि मालपानी (कवयित्री एवं लेखिका)