टैरिफ की टकराहट में उलझा भारत – अमेरिका व्यापार समझौता, क्या बनेगी बात..?

  
Last Updated:  July 12, 2025 " 06:21 pm"

🔺 के.के. झा 🔺

9 जुलाई 2025 तक जिस भारत-अमेरिका व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर होने की उम्मीद थी, वह अब भी अधर में लटका है। यह सिर्फ एक समझौता नहीं, बल्कि दोनों लोकतंत्रों की नीतियों, प्राथमिकताओं और प्रतिबद्धताओं की परीक्षा है। भारत की ओर से सबसे बड़ा अड़ंगा कृषि, विशेषकर डेयरी क्षेत्र है, जिससे 8 करोड़ से अधिक छोटे किसान जुड़े हैं। अमेरिकी डेयरी उत्पादों के लिए बाज़ार खोलना इनकी आजीविका के लिए संकट पैदा कर सकता है। दूसरी ओर, अमेरिका चाहता है कि भारत अपने बाज़ार को कृषि उत्पादों, वाहनों और शराब के लिए खोले। भारत का “मेक इन इंडिया”अभियान इन मांगों को पूरी तरह स्वीकारने से रोकता है। उद्योग क्षेत्र में स्टील और ऑटो पार्ट्स को लेकर भी विवाद है।  व्यापार समझौते में हो रही यह देरी दर्शाती है कि दोनों देश अपने-अपने हितों की रक्षा करते हुए साझेदारी को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं।

बहुप्रतीक्षित भारत-अमेरिका व्यापार समझौते पर 9 जुलाई 2025 तक हस्ताक्षर होने की उम्मीद थी। लेकिन यह तारीख भी बीत गई, और समझौता अब भी अधर में लटका है। यह देरी दर्शाती है कि दोनों देश अपने-अपने हितों की रक्षा करते हुए साझेदारी को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं। यह व्यापार समझौता सिर्फ आँकड़ों या सामान की अदला-बदली का मामला नहीं है—यह समझदारी, सम्मान और दूरदर्शिता से जुड़े निर्णयों का विषय है।

कृषि बना गतिरोध का केंद्रबिंदु।

इस समझौते में सबसे बड़ा रोड़ा बना है कृषि, खासकर भारत का डेयरी क्षेत्र। देश के 8 करोड़ से अधिक छोटे किसान दुग्ध व्यवसाय पर निर्भर हैं। अगर अमेरिका को भारत के डेयरी बाज़ार में प्रवेश मिल गया, तो यह किसानों की आजीविका के लिए बड़ा संकट बन सकता है। भारत का यह विरोध सिर्फ नीति का मामला नहीं है—यह ग्रामीण भारत की सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा से जुड़ा सवाल है। वहीं अमेरिका भारत में अपने डेयरी, मक्का, सोयाबीन और शराब उत्पादों के लिए बाजार चाहता है। लेकिन अमेरिका, भारत की कृषि संरचना और उसकी संवेदनशीलता को अक्सर सही तरीके से नहीं समझ पाता। भारत की खेती एक जीविका है, व्यापार नहीं।

स्टील और ऑटोमोबाइल पर पेच।

कृषि के बाद अगला बड़ा मुद्दा है औद्योगिक वस्तुओं का व्यापार—जैसे स्टील और ऑटोमोबाइल पार्ट्स। अमेरिका ने भारतीय स्टील पर ऊंचे टैरिफ (शुल्क) लगा रखे हैं, यह कहते हुए कि भारत सस्ते दामों पर माल भेजता है। भारत चाहता है कि ये शुल्क घटाए जाएं, और साथ ही वह अमेरिका से आयातित वाहनों पर अपने शुल्क बनाए रखना चाहता है, ताकि ‘मेक इन इंडिया’ पहल को बल मिले। सबसे बड़ी चिंता यह है कि अमेरिका 26% का प्रतिशोधात्मक शुल्क फिर से लागू कर सकता है, जिसे फिलहाल 10% पर रोका गया है। अगर यह दर 1 अगस्त से बढ़ती है, तो भारत के वस्त्र, चमड़ा और इंजीनियरिंग उत्पादों पर बुरा असर पड़ेगा—ये वे क्षेत्र हैं, जो लाखों लोगों को रोजगार देते हैं। भारत का सुझाव है कि शुल्क 5% से 10% के बीच रखा जाए—यह दोनों देशों के लिए संतुलित और व्यावहारिक रहेगा।

विदेशी निवेश पर भारत की सतर्क रणनीति।

भारत में कुछ क्षेत्रों में विदेशी निवेश (FDI) पर अब भी रोक है—जैसे जुए, तंबाकू, अणु ऊर्जा, और रेलवे। इसके पीछे राष्ट्रीय सुरक्षा और सामाजिक मूल्यों की चिंता है। रक्षा, मीडिया जैसे खुले क्षेत्रों में भी निवेश पर सीमाएं और सरकारी मंजूरी जरूरी है। भारत विदेशी पूंजी का स्वागत करता है, लेकिन अपने नियमों और शर्तों पर। यह सोच भारत को वैश्विक पूंजी का लाभ तो उठाने देती है, लेकिन नियंत्रण उसके अपने हाथ में रहता है। यह खुलापन और सुरक्षा के बीच एक समझदारी भरा संतुलन है।

भिन्न ज़रूरतें, समान लक्ष्य।

भारत और अमेरिका दोनों अपने-अपने देश के घरेलू दबावों से जूझ रहे हैं। भारत को अपने किसानों और श्रमिकों की रक्षा करनी है, जबकि अमेरिका को अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत दिखाना है और प्रभावशाली व्यापार सौदे करना है। फिर भी उम्मीद बनी हुई है। भारत आज वैश्विक व्यापार का एक भरोसेमंद केंद्र बनता जा रहा है, जो अमेरिका के लिए चीन जैसे विकल्पों से हटकर एक बेहतर साथी बन सकता है। अगर दोनों देश थोड़ा-थोड़ा झुकें, तो समझौता संभव है। अमेरिका अपने शुल्क में थोड़ी राहत दे सकता है, और भारत कुछ ऐसे क्षेत्र खोल सकता है जो उसकी कृषि या आत्मनिर्भरता को नुकसान न पहुँचाएं।

सही टैरिफ नीति: दोनों के लिए फायदे का सौदा।

मेरे विश्लेषण में, भारतीय वस्तुओं पर अमेरिका का आयात शुल्क 5% से 10% के बीच होना चाहिए। यह दर भारत की प्रतिस्पर्धा बनाए रखेगी और अमेरिका की घरेलू चिंताओं को भी ध्यान में रखेगी। अगर यह शुल्क 20% से ऊपर गया, तो भारत को भारी नुकसान होगा—निर्यात घटेगा, रोजगार जाएगा और व्यापार का संतुलन बिगड़ेगा। भारत भी कुछ गैर-संवेदनशील क्षेत्रों में अमेरिका को सीमित बाजार पहुंच दे सकता है—बशर्ते इससे उसके किसानों या मुख्य हितों पर असर न हो।

साझेदारी में संतुलन आवश्यक।

यह व्यापार समझौता केवल आयात-निर्यात की बात नहीं है—यह एक परीक्षा है कि क्या दो लोकतांत्रिक देश आपसी सम्मान और समझ के साथ साझेदारी निभा सकते हैं। समय लगना कोई विफलता नहीं है। यह दिखाता है कि दोनों पक्ष इस समझौते को गंभीरता से लेना चाहते हैं। अगर धैर्य, समझदारी और संतुलन बना रहा, तो भारत और अमेरिका ऐसा मॉडल बना सकते हैं, जो बाकी दुनिया के लिए मिसाल बन जाए।

(लेखक इंदौर के वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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