कांग्रेस में होगा वही जो गांधी परिवार चाहेगा..

  
Last Updated:  October 20, 2022 " 12:54 pm"

अध्यक्ष खड़गे हो या थरूर क्या फर्क पड़ता है।

इंदौर, (प्रदीप जोशी) क्या आप उच्छंगराय ढेबर को जानते हैं ? नहीं जानते ना, 70 के दशक से पहले पैदा हुए लोग कह सकते हैं कि कही सुना सुना सा नाम है। अब में कहूं कि आचार्य कृपलानी, पट्टाभि सीतारमैया, पुरुषोत्तम दास टंडन और एस निजलिंगप्पा के बारे में बताइये तब भी आप बगले झांकेंगे। यह सब विभूतिया भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर विराजमान हो चुकी हैं। इन विभूतियों के बारे में अथवा पार्टी और देश के प्रति इनके योगदान के बारे में खांटी कांग्रेसी भी जानकारी नहीं दे सकता। बहरहाल, ये तमाम नेता अपने दौर के समर्पित और देशभक्त नेता रहे हैं। कांग्रेस अध्यक्ष पद की कमान संभालने की योग्यता भी निश्चित रूप से रखते थे हालांकि इन नेताओं सहित उन तमाम नेताओं के पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद कांग्रेस में कोई चमत्कार नहीं हुआ। ऐसे में सोचने वाली बात है कि हाल ही में निर्वाचित हुए मल्लिकार्जुन खड़गे पार्टी में कितनी जान फूंक पाएंगे ? पार्टी में लोकतंत्र का ढोल पीटने और निर्वाचन की समस्त प्रक्रिया देख आम कार्यकर्ता को किसी चमत्कार की उम्मीद हो ऐसा लगता नहीं है।

देश की सत्ता पर सर्वाधिक समय काबिज रहने वाली 138 साल पुरानी पार्टी पार्टी का नेतृत्व खड़गे संभाले या थरूर फर्क क्या पड़ता है, कमान तो गांधी परिवार के हाथ ही रहेंगी।

गांधी परिवार की पसंद ही होता है गैर गांधी।

लोकतांत्रिक पार्टी होने का दंभ भरने वाली कांग्रेस पार्टी के भीतर लोकतंत्र कितना महफूज है इसका अंदाज आप बीते 24 सालों को देख लगा सकते है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना 1885 में हुई थी, पर हम बात आजादी के बाद से अब तक के इतिहास की कर रहे हैं। आजादी के बाद यानि 1947 से अब तक 13 गैर गांधी नेताओं ने पार्टी अध्यक्ष की कमान संभाली है। मल्लिकार्जुन खडगे 14वे गैर गांधी अध्यक्ष निर्वाचित हुए हैं। गैर गांधी अध्यक्षों की सूची पर नजर डाले तो स्पष्ट हो जाता है कि गैर गांधी अध्यक्ष, गांधी परिवार की पसंद का ही रहा है। जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी भी अध्यक्ष रहे पर जब पद छोड़ा तो कमान किसी खास को ही मिली। बीते 24 साल अध्यक्ष पद की जवाबदारी सोनिया गांधी और राहुल गांधी के पास रही जिसमे सोनिया गांधी सर्वाधिक 19 साल अध्यक्ष रही।

ऐसा निर्वाचन जिसका फैसला सबकों पता था।

नैराश्य के वातावरण में घिरी हुई कांग्रेस को 24 बरस बाद लोकतांत्रिक मूल्य याद आए। लिहाजा चुनाव करवाने का ऐलान कर दिया गया। मल्लिकार्जुन खडगे का नाम आम सहमति के नाम पर आगे कर दिया गया। आम सहमति यानि गांधी परिवार। वैसे तो निर्वाचन निर्विरोध होना था पर बात चुनाव की थी तो प्रक्रिया तो होना ही थी ऐसे में प्रतिद्वंदी के रूप में शशि थरूर मैदान में आ गए। अब सभी जानते है कि थरूर की ना तो पार्टी में स्वीकार्यता है और ना राष्ट्रीय स्तर पर पहचान पर थरूर गांधी परिवार के अनुयायी हैं, यह सब जानते हैं। निर्वाचन का यह एक ऐसा नाटक था जिसका परिणाम सब पहले से जानते थे। यह भी हास्यास्पद बात है कि जिन नेताओं से पार्टी को कुछ नया करने की उम्मीद थी और राष्ट्रीय अध्यक्ष पद की दौड़ में उनके नाम भी चले पर सभी नामों को दरकिनार कर दिया गया। यह भी कह सकते है कि वे तमाम नेता खुद ही शरणागत हो गए।

ऐसे तो कुछ बदलने वाला नहीं।

आज भले खड़गे पार्टी अध्यक्ष बन गए हों पर निराशा के वातावरण में डूबे कार्यकर्ताओं का मनोबल उनके निर्वाचन से बढ़ेगा इसमे संदेह है। आम कार्यकर्ता जानते हैं कि खडगे भी रबर स्टेंप से ज्यादा कुछ नहीं हैं।उनकी हैरानी और पीड़ा तो इस बात को लेकर है कि जब अपना ही आदेश चलाना है तो पर्दे के पीछे से क्यों ? सीधे सामने आते एक बार फिर राहुल गांधी और पार्टी की कमान संभाल लेते। भारत जोड़ों अभियान से ज्यादा जरूरी था कि पार्टी मजबूत करों अभियान।

अब खड़गे पार्टी अध्यक्ष तो बन गए हैं पर बिना गांधी परिवार की रजामंदी के कोई भी फैसला ले पाना उनके लिए संभव नहीं होगा,ऐसे में यह अपेक्षा करना कि आगामी चुनावों में कांग्रेस कोई चमत्कार कर दिखाएगी, दिन में तारे गिनने जैसी बात होगी।

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