याचिकाकर्ता और उनके अधिवक्ता ने दी हाईकोर्ट के निर्णय की जानकारी।
इंदौर : हाईकोर्ट में याचिका दायर कर केंद्र सरकार के सेवानिवृत और कार्यरत अधिकारी – कर्मचारियों को संघ के सेवा कार्यों से जुड़ने पर लगी रोक हटवाने में बड़ी भूमिका निभाने वाले याचिकाकर्ता पुरुषोत्तम गुप्ता ने प्रेसवार्ता के जरिए अपनी बात रखी। उन्होंने कहा कि मैं संघ के सेवा कार्यों से बहुत प्रभावित था पर पांच दशक पूर्व लगाए गए प्रतिबंध के चलते मन मसोसकर रह जाता था। 50 वर्षों में किसी भी सरकार ने इस और ध्यान नहीं दिया। केंद्रीय कर्मचारियों के संघ की गतिविधियों में भाग लेने पर सजा और जुर्माने का प्रावधान होने और नौकरी खोने के डर से कोई भी इसके खिलाफ जाने की हिम्मत नहीं कर पाता था। सेवानिवृत्ति के बाद जब बच्चे भी बड़े हो गए तो मैंने तय किया की इस प्रतिबंध के खिलाफ न्यायालय की शरण ली जाए। इसी के चलते अधिवक्ता मनीष नायर के जरिए हाईकोर्ट में याचिका दाखिल की।
मूलभूत अधिकारों का उल्लंघन था प्रतिबंध ।
याचिकाकर्ता पुरुषोत्तम गुप्ता ने कहा कि संघ की गतिविधियों में भाग लेने पर रोक लगाने वाली पूर्ववर्ती सरकारें इसको लेकर कोई सबूत नहीं पेश कर पाई।ये रोक संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत व्यक्ति को दिए गए मौलिक अधिकारों का भी उल्लंघन था।
संविधान की बात करने वाले ही प्रतिबंध लगाने के जिम्मेदार थे।
उन्होंने कहा, जो लोग संविधान को हाथ में लेकर आज राजनीति कर रहे हैं वे ही इस प्रतिबंध को लगाने के लिए जिम्मेदार थे और आज भी इस प्रतिबंध के पक्ष में हैं!जबकि संविधान ऐसे किसी भी प्रतिबंध को खारिज करता है। अच्छी बात है कि वर्तमान सरकार ने केंद्रीय कर्मचारियों के संघ की गतिविधियों में भाग लेने पर लगे प्रतिबंध को हटाने संबंधी शपथ पत्र हाईकोर्ट में प्रस्तुत किया।
याचिकाकर्ता के अधिवक्ता मनीष नायर ने बताया कि उच्च न्यायालय ने ये माना है की आरएसएस कोई राजनैतिक और सांप्रदायिक गतिविधियों को संचालित नही करता और न ही कोई राजनैतिक कार्य करता है।
वह देश सेवा, राष्ट्र सेवा के साथ मानव सेवा के हितों का काम संचालित करती आई है।
न्यायालय ने अपने निर्णय में ये माना है की 1966, 1970 और 1980 के कार्यालयीन निर्णय लेने के कोई ठोस आधार नही थे और इस कारण से उक्त आदेश असंवैधैनिक थे ।
न्यायालय ने ये भी माना की उक्त आदेश संविधान की मूलभूत अधिकारों का हनन है ।
न्यायालय ने अपने आदेश में इस बात का भी जिक्र किया है कि किसी भी संवैधानिक अधिकार को इस तरह के कार्यालयीन आदेशों से बदल नही सकते।
कोर्ट ने अपने आदेश में इस बात का भी संज्ञान लिया है की राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कार्यप्रणाली और उनके उद्देश्य को समझने में केंद्र सरकार को लगभग 5 दशक का समय लग गया।
इन 05 दशकों में लाखों कर्मचारी राष्ट्रीय स्वयं सेवक और उसके कार्यों से जुड़ने में असमर्थ और वंचित रहे।
न्यायालय ने आरएसएस की गतिविधियों को और उसके विभिन्न कार्यप्रणालियो को जैसे सेवा भारती व सरस्वती शिशु मंदिर जैसे प्रकल्पो को राष्ट्र हित और सामाजिक हित में किए जा रहे कार्य माना है और आरएसएस को एक अंतराष्ट्रीय स्तर की सेवा भावी संस्था माना है जिसमे कोई सांप्रदायिक उद्देश्य नही है।
न्यायालय ने deptt of personal and training and ministry of Home affairs (भारत सरकार) को निर्देशित किया है कि इस पॉलिसी को कार्यालयीन वेब साइट के होम पेज पर सर्कुलर/ऑफिस मेमोरेंडम दिनांक 9 जुलाई 24 के विवरण के साथ प्रदर्शित किया जाय।लोगों की जानकारी एवं सूचना के लिए उक्त सर्कुलर/ऑफिस मेमोरेंडम निर्णय दिनांक से 15 दिनों की अवधि में वेब साइट पर प्रदर्शित किया जाए, साथ ही यह भी निर्देशित किया है उक्त सर्कुलर /ऑफिस मेमोरेंडम को सभी विभागों में भेजने की व्यवस्था की जाए।
न्यायालय ने यह भी माना है कि आरएसएस किसी भी इस प्रकार की गतिविधियों में शामिल नहीं रहा है जो राष्ट्र के हितों के विपरीत हों इसके बावजूद भी 1966 से आरएसएस को प्रतिबंधित ऑर्गेनाइजेशन की सूची में रखा जाना भारतीय संविधान के विपरीत है।
न्यायालय ने ये भी माना है कि संविधान के अनुच्छेद 14 और 19 को कार्यालयीन आदेशों से नही बदला जा सकता। इस कारण पूर्व में केंद्र के कर्मचारियों पर लगा प्रतिबंध पूर्णतः निराधार था।
सरकार का किसी भी तरह का निर्णय, किसी ठोस आधार और साक्ष्य पर होना चाहिए जिससे की किसी भी व्यक्ति के मूलभूत संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन न हो ।
यह एक ऐतिहासिक निर्णय है जिसमे अब केंद्र सरकार के अंतर्गत आने वाले कर्मचारियों को उनके कार्यकाल के दौरान आरएसएस के सदस्य बनने और आरएसएस की गतिविधियों में शामिल होने का मौका मिलेगा।
यह प्रतिबंध राज्य शासन के कर्मचारियों पर लागू नहीं था,लेकिन केंद्र शासन के अंतर्गत आने वाले कर्मचारियों पर लागू था जो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 के अंतर्गत मूलभूत अधिकारों के हनन के साथ उल्लंघन था।