जरूरी है कुर्सी से ज्यादा दिलों में बनें रहना

  
Last Updated:  December 17, 2023 " 12:23 am"

🔹कीर्ति राणा🔹

वरिष्ठ पत्रकार, इंदौर

शिवराज अब सत्ता में नहीं हैं, लेकिन भूतपूर्व होने के बाद भी वो अभूतपूर्व बने रहेंगे। यह उनके प्रति प्रदेश की लाड़ली बहनों-बेटियों ने आंसू बहाकर सिद्ध भी किया है। नए सीएम यादव के शपथ ग्रहण समारोह के बाद लौटते शिवराज के काफिले को रोककर जिस तरह लोगों ने शिवराज जिंदाबाद के नारे लगाए… उसका यह संदेश भी समझा जा सकता है कि कुर्सी पर बैठे चाहे राजनेता हों या अफसर… इन सभी को यह नहीं भूलना चाहिए कि एक ना एक दिन तो यह कुर्सी छोड़ना ही पड़ेगी, ऐसे में कार्य-व्यवहार ऐसा रखें कि पदमुक्त होने के बाद भी लोगों-मातहतों के स्नेह में कमी ना आए।

नए मुख्यमंत्री के चयन की प्रक्रिया शुरू होने वाले दिन से ही साफ हो गया था कि वो पांचवीं बार तो सीएम नहीं ही बन रहे हैं। बड़ी वजह यह कि यदि ऐसा हो जाता तो गुजरात में चार बार मुख्यमंत्री रहे नरेंद्र मोदी से आगे निकल जाते। विधायक दल की बैठक वाले स्थान से लेकर शहरभर में लगे होर्डिंग्स-बैनर से उनका चेहरा नदारद था। बैठक स्थल पर लगे बैनर में यदि जेपी नड्डा के साथ वीडी शर्मा नजर आ रहे थे तो सिर्फ इसलिए कि वो मप्र भाजपा के अध्यक्ष हैं।
मप्र में भाजपा को मिले दो-तिहाई बहुमत के बाद जिस तरह के बयान मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान के आ रहे थे, उससे दिल्ली तक तो हलचल मची हुई थी ही… भाजपा की नब्ज पहचानने वालों को भी अनुमान हो चला था कि अब शिवराज तो नहीं! खुद शिवराज भी समझ चुके थे कि उनके 18 साल के कार्यकाल में जितनी भी बार प्रधानमंत्री मोदी मप्र आए, उन्हें नजरअंदाज करने के लिए टेढ़े-टेढ़े क्यों चलते थे! प्रदेश की राजनीति के बाद राष्ट्रीय राजनीति में वजनदार होते जा रहे शिवराज को विधानसभा चुनाव तक सहन करना केंद्र की मजबूरी थी। यही कारण रहा कि बीते साल-दो साल में शायद ही कोई सप्ताह ऐसा गुजरा हो, जब शिवराज को हटाने की सुर्खियां न बनी हों! केंद्र की मजबूरी रही कि भाजपा को मप्र में सरकार गिफ्ट करने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया को न तो प्रदेश की कमान सौंप सकी और न ही शिवराज को हटाने का साहस दिखा सकी। राजस्थान और छत्तीसगढ़ की तरह मध्यप्रदेश में भी प्रधानमंत्री मोदी की गारंटी, गृहमंत्री अमित शाह और राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा के तूफानी और आक्रामक दौरों का असर नकारा नहीं जा सकता, लेकिन इस तिकड़ी के प्रभाव के बावजूद मप्र में शिवराज सिंह के भैया और मामा वाले रिश्ते से गांव-गांव जुड़ी आत्मीयता से भाजपा को मिले लाभ से भी आंख नहीं चुराई जा सकती। यह बात अलग है कि मोदी गुणगान में रमे रहने वाले कई नेताओं ने चरम भक्ति के चलते लाड़ली बहना योजना से मिले लाभ को नकारने में देरी नहीं की। लाड़ली बहना को नजर अंदाज करने वाले नेता यह भी भूल गए कि इस योजना का खाका तो संघ की मंजूरी से ही तैयार किया गया था, जिसका सफलतम पालन करने में महारत दिखाकर प्रशासनिक मशीनरी ने शिवराज को पूरे प्रदेश में मामा-भैया की छवि गढ़ दी।

अपने 18 साल के कार्यकाल में पिछले दो चुनाव में मिली जीत के मुकाबले इस बार के चुनाव में भाजपा को यदि अप्रत्याशित आंकड़ों के साथ जीत मिली है तो मोदी की गारंटी की ही तरह लाड़ली बहना योजना भी गेम चेंजर रही है। बेटियों के जन्म से, पढ़ाई, विवाह तक लाभदायी विभिन्न योजनाओं से तो बहुत पहले बहनों-बेटियों को लाभ मिल ही रहा था। ऐन चुनाव से तीन महीने पहले शुरू की गई लाड़ली बहना योजना ने तो जैसे भाजपा के पक्ष में लहर का काम कर दिया। पुरुषों और युवा मतदाताओं को मोदी की गारंटी, सुरक्षा, राम मंदिर, इजरायल-हमास युद्ध को लेकर मोदी सरकार की नीति ने प्रभावित किया तो महिला मतदाताओं पर लाड़ली बहना का जादू चला। कल्पना कीजिए एक परिवार में यदि चार महिलाएं इस योजना की लाभार्थी बनीं तो बैठे ठाले खाते में 4 हजार रु. मिलना किसे अखरेगा! यह राशि बढ़ाकर 1250 तक हुई और विधानसभा चुनाव परिणामों के बाद जब शिवराज के स्थान पर तीन बार के विधायक मोहन यादव को सीएम बनाने की घोषणा की गई, तब शहरों से लेकर गांवों तक महिला वर्ग की पहली चिंता यही रही कि लाड़ली बहना योजना बंद तो नहीं होगी, क्योंकि इस योजना की राशि में वृद्धि के साथ हर महिला के खाते में 3-3 हजार रु की किस्त आना है।

मप्र में इस योजना का लाभ ले रही महिला मतदाताओं की संख्या 1.25 करोड़ के करीब है। यही नहीं, ऐन चुनाव से पहले शिवराज लाड़ली बहनों को ‘लखपति बहना’ बनाने की घोषणा भी कर चुके थे। यही सारे कारण रहे कि नए मुख्यमंत्री मोहन यादव के शपथ समारोह से पहले शिवराज सिंह से मिलीं और फूट-फूटकर रोती रहीं लाड़ली बहना पूछती रहीं कि भैया, हमने तो आप को जिताया था। राजनीति निर्मम होती है। उगते सूर्य को ही अर्घ्य दिया जाता है। यह कटु सत्य भोपाल में शपथ समारोह से लेकर भोपाल में लगे स्वागत द्वार-होर्डिंग्स में भी नजर आया, जहां बाकी सारे नेता तो मुस्करा रहे थे, लेकिन शिवराज सिंह का चेहरा गायब था।

फिनिक्स पक्षी से अपनी तुलना करने वाले शिवराज सिंह को भुलाना उन्हें नापसंद करने वालों के लिए अनिवार्यता हो सकती है, लेकिन मध्यप्रदेश की महिला मतदाताओं के दिलों-दिमाग में जो उनकी छवि बनी हुई है, उसे मिटाने का माद्दा न तो भाजपा के किसी राष्ट्रीय नेता में है और न ही मुख्यमंत्री पद के दावेदार रहे अन्य नेताओं में। शिवराजसिंह कुर्सी से हटे हैं, लेकिन दिलों से नहीं। उनकी लाड़ली बहनों-बेटियों की तो दिली इच्छा थी कि लोकसभा चुनाव तक तो उनका भैया ही सीएम रहेगा… ऐसा नहीं हुआ तो झटका लगना स्वाभाविक था। इससे भी अधिक हैरानी वाली बात यह रही कि नए सीएम के शपथ ग्रहण समारोह में आए प्रधानमंत्री मोदी ने भी शिवराज के प्रति सौजन्यता नहीं दिखाई। यह बड़प्पन ही होता कि वो हाथ पकड़कर शिवराज सिंह को अपने साथ मंच पर ले जाते। ऐसा उन्होंने नहीं किया तो शिवराज ने भी पूर्व की तरह मोदी गुणगान दोहराने की अपेक्षा शब्दों की कंजूसी करते हुए बस इतना ही कहा कि प्रधानमंत्री मोदीजी का स्वागत है।

शिवराज सरकार के खिलाफ बढ़े असंतोष का ही नतीजा था कि आम जनता ने तो उनकी सरकार को 2018 में ही नकार दिया था। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपनी उपेक्षा का बदला कांग्रेस से नहीं लिया होता तो शिवराज तीन बार ही प्रदेश के सीएम रह पाते। ऐसा नहीं कि शिवराज का लंबा कार्यकाल दूध का धुला ही रहा। वो तो प्रधानमंत्री की नजर बचाकर मंच पर ही अपनी बंडी की जेब से मेवा निकालकर मुंह में गप करने में माहिर रहे हैं। उन वर्षों में घपले और बड़े-बड़े घोटाले भी हुए हैं। जब उनकी सत्ता थी, तब केंद्र सरकार साहस नहीं दिखा सकी तो अब एक्शन दिखाकर पूर्व सीएम पर कार्रवाई का साहस इसलिए भी नहीं कर पाएगी, क्योंकि कीचड़ के छींटे तो दिल्ली तक भी उड़ेंगे! शिवराज को भी पता है कि इतने लंबे समय यदि वे मप्र में मुख्यमंत्री बने रहे तो यह केंद्रीय नेतृत्व की कृपा ही थी, इसीलिए अपनी विदाई के वक्त वो बार-बार यह दोहराते रहे हैं कि 18 साल तक भाजपा ने मुझे दिया ही दिया है अब तो संगठन को मेरे देने का वक्त आया है।

(ये लेखक के निजी विचार हैं।)

Facebook Comments

Related Posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *