ई- उठावना या इमोशन का उठावना…?

  
Last Updated:  July 2, 2019 " 07:33 pm"

इंदौर: घर- परिवार के सुख- दुःख के पलों में नाते- रिश्तेदार, मित्र और परिचितों को शामिल करने के लिए तारीख, स्थान और समय संबंधी सूचना अब सोशल मीडिया के जरिये दी जानी लगी है। सूचना को कम से कम वक्त में ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने में सोशल मीडिया की अहमियत को नकारा नहीं जा सकता, इसलिए इस्का उपयोग अन्य माध्यमों की तुलना में ज्यादा होने लगा है। इससे किसी को हैरानी या परेशानी भी नहीं है लेकिन किसी का गम बाटने के लिए भी प्रत्यक्ष मिलने की बजाए आभासी दुनिया का सहारा लिया जाने लगे तो क्या उसे उचित ठहराया जा सकता है..? मानवीय संवेदनाओं का इसतरह रोबोटिकरण जज्बातों को को खत्म तो नहीं कर देगा..?
ये सवाल इसलिए उठ खड़े हुए हैं कि इंदौर में एक परिवार ने उठावना जैसे बेहद मार्मिक और संवेदनशील मसले को ई- उठावना में तब्दील कर दिया। उन्होंने सोशल मीडिया {फेसबुक } पर पोस्ट लिखकर लोगों से आग्रह किया कि वे प्रत्यक्ष मिलने की बजाए उनकी पोस्ट पर ही अपनी शोक संवेदनाएं व्यक्त करें। इसके पीछे उनके अपने तर्क थे। कई लोगों को ये कदम समयानुकूल लगा तो कइयों का मानना था कि जज्बात भी अगर इसतरह व्यक्त होने लगे तो फिर इंसान होने का क्या मतलब रह जाएगा।
बहरहाल इस मुद्दे को लेकर हमने कई बुद्दिजीवी, नेता, पत्रकार और समाजसेवियों से बात की तो अलग- अलग विचार निकलकर सामने आए।

बीजेपी के वरिष्ठ नेता गोविंद मालू का कहना है कि पहले ही यह दौर रिश्तों के मामले में खुदगर्ज हो गया है और दूसरा इंदौर अभी इतना व्यस्त और भीड़ भरे यातायात की अनुपलब्धता का नहीं हुआ कि हम संवेदना को भी वर्चुअल कर वास्तविकता से दूर कर दें ,जो बात रूबरू चलकर दुःख और दुःखी, शोकमग्न के पास पहुंच कर मरहम लगाने में है वह e उठावना से सम्भव ही नहीं है।यह केवल औपचारिक ही रहता है।जो भाव श्मशान में जाने से मानस पटल को झकझोर देते है,संसार को असार जैसा वैराग्य पैदा करते है,क्या वह वर्चुअल दृश्य देखने से उभर सकता है?नहीं इसलिए कृपया परम्परा को मशीन और विज्ञान की भेंट न चढ़ाइए,मैनुअल का विकल्प मशीन को कृपा कर ऐसे भावनात्मक रिश्तों के लिए मत बनाइये।

दिल्ली में रहकर इंदौरी पत्रकारिता का परचम लहराने वाले वरिष्ठ पत्रकार अशोक वानखेड़े को तो e उठावना जैसा विचार ही अजीब लगता है। उनका कहना है कि ई उठावना यह सोच भी विचलित करती है. क्या हम हमारे रिश्ते नाते संवेदनाएं या कहो अपने आप को मोबाइल में बंद करना चाहते हैं. मुझे नहीं लगता उठावना में कोई मजबूरी में आता होगा. आने वाले मित्र गण आपका दुख बांटने के लिए आते हैं. क्या सुख और दुख भी मोबाइल से व्यक्त होंगे. मनुष्य सामाजिक प्राणी है. और समाज वह है जहां व्यक्ति एक दूसरे से आदान प्रदान करता है एक दूसरे की मदद करता है एक दूसरे के सहारे जिंदगी जीता है. वर्चुअल दुनिया दिखावटी है । क्या हम दाल बाफले की थाली फेसबुक पर लोड करके दोस्तों को दावत दे सकते हैं। ? कुछ अच्छी परंपराएं समाज में रहने दीजिए। डिजिटाइजेशन के नाम पर उसे समाप्त ना करें।

संस्कृतिकर्मी और समाजसेवी संजय पटेल को ई- उठावना में कुछ भी गलत नहीं लगता। उनका कहना है कि ई-उठावना या शोक बैठक का विचार अनुकरणीय है. शहरों के यातायात की हालत और इंसान की व्यस्तता सर्वज्ञात है. दूरियों का बढ़ना और पार्किंग के माकूल इंतज़ाम न होने के कारण भी अब वॉट्सप्प और ईमेल पर समवेदना पाकर सहज है. सदभावना सभा के लिये यथासमय स्थान न मिल पाना या अनुकूल स्थान नहीं मिलना और यदि मिलना भी जो ऐसी क़ीमत पर मिलना जो वहन करने योग्य नहीं है तो आभासी सदभावनाओं की अभिव्यक्ति ठीक प्रतीत होती है।
मैं तो इस दिशा में कुछ आगे की सोच रखता हूँ,हालाँकि इसकी शुरूआत मुम्बई,दिल्ली और बैंगलोर जैसे महानगरों में प्रारंभ हो गई है जहाँ दूरियाँ एक बहुत बड़ा मसला है. वक़्त आ गया है कि अब सीधे अंतिम संस्कार का समय दिया जाना चाहिए. निकट संबंधी और मित्र ज़रूर दिवंगत के निवास पर पहुँचना चाहते हैं किंतु कई लोग ऐसे हैं जिन्हें महज़ लोकाचार के लिये दु:ख में शरीक होना पड़ता है. अंतिम यात्रा निकालने के पूर्व के अनुष्ठान और पल किसी भी परिवार के लिये बेहद भावनात्मक होते हैं.कई लोग ऐसे होते हैं जो शोक समाचार पढ़कर सीधे मुक्तिधाम जाना चाहते हैं और जाते भी हैं.वक़्त का तक़ाज़ा है कि परिजनों/निकटस्थ मित्रों को निवास पर आने की पृथक सूचना वॉट्सएप्प पर दी जा सकती है और सार्वजनिक सूचना तंत्र में मुखाग्नि के समय का उल्लेख किया जाना चाहिये. मुझे मालूम है कि मेरी इस बात से कई लोगों की भावनात्मक असहमति हो सकती है लेकिन मन ही मन सब इस तथ्य से इनकार नहीं कर सकते कि जिस जज़बाती नज़रिए से किसी के ग़म में शामिल हुआ जाता है वह समय की अवश्यंभावी और अनपेक्षित बर्बादी में में कम होने लगता है और लोग अपने मोबाइल या गप्पा गोष्ठियों में संलग्न हो जाते हैं. भरे हुए मन से और समय बचाते हुए भी किसी की पीड़ा का सहभागी बना जा सकता है।

वर्चुअल दुनिया से लंबे समय से जुड़े वरिष्ठ इंदौरी पत्रकार जयदीप कर्णिक जो फिलहाल दिल्ली की पत्रकारिता में अपनी लेखनी का लोहा मनवा रहे हैं, से भी हमने इस विषय पर बात की। उनका कहना था कि जन्म से लेकर मृत्यु तक इंसान की जिंदगी में सुख- दुःख के कई पल आते हैं जिन्हें वह अपनों के साथ जीता है। प्रत्यक्ष रूप से मिलना- जुलना और अपने जज्बातों को शेयर करना इंसान के स्वभाव का हिस्सा है। वर्चुअल दुनिया उसका स्थान नहीं ले सकती। इसके ये मायने भी नहीं हैं कि सोशल मीडिया पर संवेदनाओं की अभिव्यक्ति गलत है। किसी कारणवश जो प्रत्यक्ष रूप से मिलकर सुख- दुःख नहीं बाट सकते या उनकी निजी कोई परेशानी है और वे सोशल मीडिया के जरिये अपनी संवेदनाएं व्यक्त करते हैं तो इसमें कुछ भी अनुचित नहीं है। बीते जमाने में जो काम लोग चिट्ठी- पत्रियों के जरिये करते थे उसके लिए अब सोशल मीडिया का सहारा लेने लगे हैं।जयदीपजी के मुताबिक ई-उठावना बदलते समय का सूचक जरूर है पर रूबरू मिलकर संवेदनाओं को अभिव्यक्त करने में जो बात है वो वर्चुअल दुनिया में कभी नहीं आ सकती।

टीवी एंकर और पत्रकार वैशाली व्यास का मानना है कि वर्चुअल दुनिया में संवेदनाएं भी डिजिटल होती हैं जिनका हकीकत से कोई संबंध नहीं होता।
अतिथि देवो भव: | हमारी संस्कृति, हमारे संस्कार है, परंतु बदलते भारत में यह संस्कृति व संस्कार कब तक रह पाएंगे , कह पाना मुश्किल है । आपसी मेल- मिलाप ,आमंत्रण -निमंत्रण का दौर पत्र-पत्रिकाओं के बंधन को पीछे छोड़ e निमन्त्रण तक पहुंच गया है।किसी की मौत के बाद रखा जानेवाला उठावना भी परंपराओं को पीछे छोड़ ई उठावना में परिवर्तित होने जा रहा है। आने वाले समय में कहीं ऐसा ना हो कि परिजन पार्थिव देह लेकर बैठे रहे और स्वजन डिजिटल माध्यम से ही सांत्वना और संवेदनाएं प्रकट कर इतिश्री कर ले| अपनी जिंदगी को डिजिटल दुनिया के साथ हम कुछ इसतरह जोड़ने लगे हैं कि परिवार के सदस्यों में ही संवादहीनता बढ़ती जा रही है।ऐसे में ई- संवेदनाओं का प्रचलन में आना समाज और घर- परिवारों को भारी नुकसान पहुंचा सकता है।. जो प्रत्यक्ष रूप से अपनी मौजूदगी दर्ज कराने में असमर्थ हैं वे सोशल प्लेटफार्म के जरिये किसी का दुःख साझा करें तो समझ में आता है पर इसको परंपरा बना लेना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता।

कुल मिलाकर सार यही निकालकर आया कि हम बदलाव का स्वागत करें नाइ तकनीक को अपनाएं। उसका उपयोग करें पर उसे अपनी जिंदगी पर हावी न होने दें। रोबोट और इंसान में संवेदनाओं का ही अंतर है। आभासी दुनिया में हम विचरण जरूर करें पर खुद को उसका हिस्सा बनाने से बचें। आपसी मेल- मुलाकात और संवाद के जरिये सुख- दुःख बाटने का विकल्प वर्चुअल या यूं कहें दिखावटी दुनिया नहीं हो सकती, ये हमें ध्यान रखने की जरूरत है।

Facebook Comments

Related Posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *