प्रशांत किशोर को कांग्रेस द्वारा अस्वीकार करने के ये हैं पांच कारण…

  
Last Updated:  April 29, 2022 " 09:26 pm"

संजय त्रिपाठी

अभी अभी कांग्रेस के बड़े नेताओं ने चिंतन किया। चिंतन क्या हुआ यह किसी को नहीं पता पर मीडिया में खूब सुर्खियां बनी कि बड़ा बदलाव होने वाला है। कांग्रेश के विद्रोही गुट में भी जन नेताओं का अभाव है क्योंकि कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व ने कभी जन नेताओं को सत्ता के शिखर तक नहीं आने दिया। जब जब कोई जन नेता कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व के लिए चुनौती बना तब तक उसे किनारे कर दिया गया। यही प्रवृत्ति राज्य और नगर स्तर पर भी दोहराई जाती है। भारत के सांस्कृतिक जीवन, व्यावहारिक राजनीति,कार्यकर्ताओं से सीधे संपर्क रखने वाले हाईकमान के नाम से मशहूर बुद्धिमान राजनीतिज्ञ तिकड़ी श्रीमती सोनिया गांधी,विद्वान विचारक युवा राहुल गांधी और ‘लड़की हूं लड़ सकती हूं’ का नारा देने वाली श्रीमती प्रियंका वाड्रा, कांग्रेसी जिन्हें प्रियंका गांधी कहते हैं के सामने एक बड़ा यक्ष प्रश्न खड़ा हो गया था। कांग्रेस में आधारभूत परिवर्तन के लिए प्रशांत किशोर की व्यापक कार्ययोजना पर काम हो या फिर तथाकथित अनुभवी वयोवृद्ध बुजुर्गों के महान अनुभव का लाभ कांग्रेस पार्टी उठाएं।

बहरहाल, मेरी दृष्टि में इन प्रमुख पांच कारणों के चलते प्रशांत किशोर का विजन महान कांग्रेसियों को समझ में नहीं आया।

♦️👉 प्रशांत किशोर चाहते थे कि कांग्रेस में युवा नेतृत्व को विशेष महत्व दिया जाए। अगर कांग्रेस की प्रदेश इकाई में युवा प्रदेश अध्यक्षों की नियुक्ति होती तो कई नए चेहरे राजनीति में उभर कर आते। कांग्रेस परंपरागत रूप से जाति के आधार पर विभिन्न जातियों के नेताओं को पद प्रदान करके उन के माध्यम से मैनेजमेंट करती आई है। कई बार तो पद देने में जाति महत्वपूर्ण होती है, योग्यता दूसरे स्तर पर आती है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण कांग्रेश के आदिवासी व दलित नेताओं का उनके परिवार तक ही सीमित होकर राजनीति करना रह गया है। नया दलित, आदिवासी और पिछड़ा नेतृत्व कांग्रेस में कभी नहीं उभरा, जो पहले से परिवार की राजनीति करते आ रहे हैं, उनके ही परिवार जन रिश्तेदार को अवसर मिलता है। प्रशांत किशोर का सबसे पहले विरोध करने वालों में 71 वर्षीय दिग्विजय सिंह और उनके हम उम्र जमे हुए कांग्रेसी खुलकर सामने आने लगे थे। मध्यप्रदेश और राजस्थान में जब युवा नेतृत्व को आगे लाने की बात आई थी तब पुराने जमे हुए कांग्रेसियों ने दो वयोवृद्ध नेताओं को मुख्यमंत्री बनवा दिया था। यही हाल पंजाब का भी था और यही छत्तीसगढ़ का भी है। प्रशांत किशोर की प्लानिंग में कांग्रेस, दिग्विजय सिंह, कमलनाथ और अशोक गहलोत जैसे वयोवृद्ध नेताओं की भूमिका सीमित होती दिख रही थी। सालों से कांग्रेस की राजनीति में प्रदेश स्तर पर जमे क्षत्रप अपने अस्तित्व का संकट पीके को मान रहे थे।

♦️👉 प्रशांत किशोर सॉफ्ट हिंदुत्व के समर्थक थे। दिल्ली के लाल किले से यह भाषण देने वाले देश के सबसे विद्वान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, जिन्होंने कहा था देश के संसाधनों पर सबसे पहले मुसलमानों का हक है। न्यायालय में अयोध्या मामले में राम मंदिर की सुनवाई के दौरान मंदिर पर हिंदुओं के अधिकार का निर्णय नहीं करने की सलाह देने वाले महान धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल जो अभी-अभी दिल्ली हिंसा के दौरान बुलडोजर रोकने के लिए उच्चतम न्यायालय भी गए थे, शाहबानो प्रकरण में कानून बदलने वाले,खरगोन हिंसा में एसपी, टीआई को गोली मारने वाले दंगाइयों को तथाकथित धर्मनिरपेक्ष नेता जो कह रहे थे, पथराव करवाने के लिए भाजपा ने मुस्लिम युवाओं को पैसे दिए हैं, ऐसे ही कुछ तथाकथित धर्मनिरपेक्ष कांग्रेसियों को प्रशांत किशोर के मोदी से पुराने रिश्ते और सॉफ्ट हिंदुत्व की लाइन पर एतराज था। वह आज भी कांग्रेस के मुस्लिम वोट बैंक के आधार पर सिर्फ भाजपा और आरएसएस पर दोष लगाकर ही राजनीति करना चाहते हैं। यथार्थ से परे यह आकलन कांग्रेश की असफलता का बड़ा कारण रहा है।

♦️👉 प्रशांत किशोर के रणनीतिक कौशल की मीडिया में इतनी चर्चा हो गई थी,,, कि खुद सोनिया गांधी, राहुल और प्रियंका नहीं चाहते थे कि प्रशांत किशोर के रूप में,, उनके अस्तित्व को उन्हीं का बनाया हुआ समानांतर केंद्र चुनौती देने लगे।अगर पीके सफल हो जाते तो जिस नए नेतृत्व को उभारने की सलाह देते, वह कहीं ना कहीं पीके का मुरीद बन जाता और पूरे देश में 100 से 200 नए युवा पीके के भी समर्थक बनकर खड़े हो जाते फिर राहुल गांधी का क्या होता, आज भी सोनिया गांधी राहुल गांधी को प्रथम प्राथमिकता देती हैं। वह प्रियंका गांधी को राष्ट्रीय नेतृत्व नहीं देना चाहती। लगातार चुनाव में मिल रही असफलता के बाद हाईकमान के खिलाफ उठ रही विद्रोह की आवाज को यह कहकर दबाना चाहते थे कि हम कुछ तो कर रहे हैं। खुद सोनिया और उनकी टीम भी जानती थी कि क्षेत्रीय कबीलों में बंटी हुई कांग्रेस,, कभीभी क्षत्रपों से मुक्ति, नए नेतृत्व का उभार और नए परिवर्तन को स्वीकार नहीं करेगी। थक हार कर हर स्थिति में गांधी परिवार का वर्चस्व संगठन पर बना रहेगा।

♦️👉 सालों से जंग खा रहा कांग्रेस का संगठन नए आइडिया का वजन उठाने की स्थिति में नहीं था, वह खुद राज्य स्तर पर नैसर्गिक और स्वतः भाजपा के खिलाफ नकारात्मक वोटों के आधार पर ही राजनीति करना चाहते हैं। खुद कांग्रेसी कोई नया रोल मॉडल या नए सिस्टम में ढलना भी नहीं चाहते। कांग्रेस व्यक्ति आधारित संगठन रहा है जिसमें व्यक्ति और उसकी टीम कांग्रेसी हो जाती है, फिर उस नेता के आधार पर राजनीतिक विकास के साथ-साथ कार्यकर्ताओं को भी नए पद व अवसर मिलते हैं। खुद कांग्रेसी भी जानते हैं कि उनकी जमीनी हकीकत क्या है। सालों से उनकी राजनैतिक शैली वही धक्का-मुक्की, गुटबाजी और पुराने परिवारों का वर्चस्व की रही है। पीके इन सब में बड़ी बाधा बन सकते थे।

♦️👉 कांग्रेस के कुछ बुजुर्ग नेताओं में अभी भी यह आत्मविश्वास शेष है कि वह खुद के दम पर नरेंद्र मोदी को पराजित कर सकते हैं। वह यह भी तर्क देते हैं कि जब अटल बिहारी वाजपेयी चुनाव हार सकते हैं तो गठबंधन की राजनीति के जरिए राज्य स्तर का ध्रुवीकरण कर मोदी को भी हराया जा सकता है। उनका मानना है कि चुनाव की रणनीति को राज्य स्तर पर केंद्रित कर दिया जाए। मतलब लोकसभा के चुनाव का आधार राज्य की समस्याएं राज्य का नेतृत्व बने ना कि राष्ट्रीय राजनीति का केंद्र। ऐसे में कोई नया प्रयोग लगातार एक जैसी शैली में काम करने वाले कांग्रेश के कार्यकर्ताओं में बिखराव ला सकती है, जिसका लाभ भाजपा उठा लेगी। जो चल रहा है वह अच्छा चल रहा है,, कांग्रेसियों की यही खासियत है। वे सदैव परिवार से शासित होते आए हैं। राष्ट्रीय स्तर पर, प्रदेश स्तर पर और नगर स्तर पर 70% से अधिक परिवारॉ के माध्यम से ही कांग्रेस की राजनीति चलती है। ऐसा बहुत कम होता है कि कांग्रेस कोई नया प्रयोग करें और नए लोगों का अवसर दें। जिन नए लोगों को अवसर मिलता है, वह भी इसी प्रकार से चुनकर आते हैं। कुछ अपवाद अवश्य होते हैं, जो कांग्रेस में आगे बढ़ जाते हैं पर अधिक समय तक स्थाई रूप से टिक नहीं पाते। यही कांग्रेस की संस्कृति और चरित्र रहा है। नया परिवर्तन या प्रयोग के लिए कांग्रेस में ऐसी जगह नहीं बची है जो 10 साल के संगठनात्मक बदलाव के बाद पूरी हो सके।

(लेखक इंदौर के वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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