🔹कीर्ति राणा 🔹
जाने कितने साल इंदौर के माथे से ये कालिख नहीं मिट पाएगी। अच्छे मामलों में नंबर वन रहने वाले शहर पर यह हादसा भारी पड़ गया है। बेचारी बावड़ी तो बेगुनाह होते हुए भी हत्यारी मानी जा रही है। एक जिंदा बावड़ी को बिना किसी कारण दफन करने का दंड उन निर्दोषों को मिला है, जिन्हें तो यह तक पता नहीं था कि लापरवाही और नोटिस के नाटक वाले रेत-सीमेंट से बने जिस फर्श पर वह बैठे हैं,उसके नीचे एक जिंदा बावड़ी सिसक रही है।
मृतकों-घायलों के घाव मुआवजे से शायद ही भर पाएं।उनके इन आंसुओं का जवाब किसके पास है कि हमारे परिजन के हत्यारे कौन हैं? इनके चेहरे मेरा-तेरा पट्ठा की नजरों से तो चिह्नित नहीं किए जाएंगे।
पार्षद रहे किस भाजपा नेता की दादागीरी से इस हादसे की ‘कलंक कथा’ लिखी गई? देश में जीत का ऐतिहासिक रिकॉर्ड बनाने वाले संरक्षणदाता का नाम समाज जन की जुबान पर बीती रात से ही है। इसे मात्र अफवाह और छवि बिगाड़ने का हथकंडा कौन कहना चाहेगा! वर्षों से यदि एक ही जोन पर अधिकारी जमे हुए हैं तो यह उस बावड़ी को दफनाने और बगीचे में आज भी चल रहे अवैध निर्माण से आंखें मूंदे रहने का ही तो सद्भावना पुरस्कार है।
नगर निगम ने नालों में फुटबॉल खेलने, पार्टी करने वाले फोटो जारी कर तो अमृत योजना की खूब वाहवाही लूट ली, लेकिन एक बावड़ी को दफन कैसे होने दिया।
हर योजना में अपार सफलता का तमगा झपटने वाले तत्कालीन कलेक्टर से लेकर निगम आयुक्त से कौन पूछेगा कि काह्न-सरस्वती नदी से लेकर कुओं-बावड़ी तक को पुनर्जीवित करने की गौरव-गाथा में दम तोड़ती इस बावड़ी को देखने से पहले दृष्टिहीन कैसे हो गए।
शोकमग्न परिवारों को अब आंसू नहीं बहाना चाहिए, क्योंकि उनके दु:ख में राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री सहित तमाम वीवीआईपी शामिल हो गए हैं। सबसे पहले ट्विट करके शोक व्यक्त कर चुके प्रधानमंत्री को मुख्यमंत्री से यह तो पूछना ही चाहिए कि जिस इंदौर को उन्होंने नए दौर का खिताब दिया,वहां दीया तले इतना घुप्प अंधेरा कैसे?
विधानसभा चुनाव से 6-8 महीने पहले हुए इस हादसे को भुनाने में राजनीतिक दलों की निर्ममता अभी इसी शहर और पीड़ित परिवारों को देखना बाकी है।
दोषी कौन, इस यक्ष प्रश्न का तो वर्षों तक चलने वाली जांच में भी शायद ही सही जवाब मिले। सबसे पहले तो हम मीडिया वाले भी कम दोषी नहीं हैं। हम अभी तो मृतकों-घायलों की सूची अपडेट करने में फुर्ती दिखा रहे हैं। इस बावड़ी का गला घोंटने की साजिश की जूनी इंदौर थाने में बीस साल पहले बड़ी मुश्किल से रिपोर्ट दर्ज हो पाई थी। तब थाने, पार्षद और संरक्षण देने वाले नेताओं से रिश्ते निभाने की अपेक्षा बावड़ी के इन हत्यारों की हकीकत उजागर करने की होड़ मीडिया ने दिखाई होती तो आज इस बेगुनाह बावड़ी पर ‘हत्यारी’ होने का दाग नहीं लगता। 36 मृतकों के परिजन को सलाम, जिन्होंने गहन दु:ख की घड़ी में भी बिछड़ रहे अपने सदस्यों के अंगदान की सहमति देकर जरूरतमंदों के प्रति अपना फर्ज निभाया है। बेशर्म राजनीति तो इस आपदा में भी अवसर खोजने के रास्ते तलाशती रहेगी।