इंदौर : लॉक डाउन के बाद ठप पड़े रंगकर्म का सिलसिला धीरे ही सही पर चल पड़ा है। अभिनव कला समाज ने शौकिया कलाकारों को अपना मंच उपलब्ध करा दिया है और स्टेट प्रेस क्लब आयोजन में सक्रिय भागीदारी निभा रहा है। इसके चलते साप्ताहिक नाटकों की श्रृंखला शुरू हो गई है। इस बार दो नाटक खेले गए। उनमें से एक था संस्था पथिक के बैनर तले खेला गया नाटक ‘पॉपकॉर्न’ । आशीष पाठक द्वारा लिखे गए इस एकल नाट्य का निर्देशन किया सतीश श्रोत्री ने।
नौकरी न मिलने से रेलवे स्टेशन पर पॉपकॉर्न बेचने को मजबूर एक बेरोजगार युवक के समक्ष घटित होने वाले दृश्यों में गूंथा नाटक का कथानक बेरोजगारी के साथ निराश्रित विशेष लड़कियों के प्रति समाज के रवैये पर सवाल खड़े करता है। नाटक के संवाद दर्शकों की अंतरात्मा को झकझोर देते हैं।
ये था कथानक।
गांव से शहर फौज में भर्ती होने आया रूपक भर्ती एक महीना टलने से घर लौटने की बजाए शहर में ही रुक जाता है। स्टेशन पर पॉपकॉर्न बेचने वाले बुजुर्ग की सलाह पर रूपक भी स्टेशन व ट्रेनों में पॉपकॉर्न बेचकर अपना गुजारा करने लगता है। इस दौरान नए- नए दृश्य उसे देखने को मिलते हैं। स्टेशन स्थित मन्दिर में की जाने वाली पंडित सरवन की आरती में शामिल होने के साथ स्टेशन पर रहने वाली गूंगी और मंदबुद्धि लड़की टुकिया को पॉपकॉर्न खिलाना उसका नित्य कर्म बन गया था। टुकिया भी उसके आने की बाट जोहती रहती थी। एक दिन एक फल वाले की बुरी नजर टुकिया पर पड़ जाती है। टुकिया उसकी हवस का शिकार हो जाती है। इतने में रूपक स्टेशन पर पहुंच जाता है। वह फलवाले को पकड़ने का प्रयास करता है पर वह चकमा देकर भाग जाता है। बदहवास टुकिया की हालत देखकर रूपक समझ जाता है कि टुकिया भी आज किसी का टाइमपास पॉपकॉर्न हो गई है।
नाटक का अंत दर्शकों को सोचने पर विवश कर देता है, जब रूपक कहता है कि ” अच्छा आदमी बनने के लिए कोई चिंतन नहीं करता, अच्छा आदमी बनाने की कोई मशीन नहीं बनाता। ऐसी निराश्रित लड़कियों को आज की जनता टाइमपास समझती है। जैसे वह टाइमपास पॉपकॉर्न है।”
अंत में रूपक दुःखी मन से कहता है आज से इस स्टेशन पर दो पॉपकॉर्न वाले हो गए। एक वह खुद और दूसरी यह टुकिया।
इस एकल नाट्य में रूपक सहित सभी उल्लेखित किरदारों को जीते हुए मंच पर नजर आए राहुल प्रजापति। उन्होंने अपने अभिनय से दर्शकों को प्रभावित किया। रोशनी दीपक का संगीत और नंदकिशोर बर्वे की प्रकाश व्यवस्था नाटक का प्रभाव बढाने में मददगार रही। नाटक देखने अच्छी संख्या में दर्शक आए थे।