तुम सीता हो,इस समाज में स्थापित हर मर्यादित राम की
देती रहोगी परीक्षा यहाँ हर निर्धारित काम की।
प्रिय हो तुम भी अपनी सीता के बिल्कुल राम की तरह
पर राम की तरह सहना भी पड़ेगा अपनी सीता से विरह।
बैर उन दोनों के बीच था ही कहाँ
बस किया दोनों ने वही जो समाज ने कहा।
रघुकुल के स्थापित मूल्य भला समाज ने भी कहाँ माने हैं
पर तुम्हें वो सारे नियम व संस्कार निभाने हैं।
अछूते तो वो भी नहीं रहे जो ख़ुद मर्यादा की सूरत थे
सहना पड़ा अपमान उन्हें भी जो ख़ुद ईश्वर की मूरत थे।
संस्कारों की बलिबेदी पर तुम्हें ख़ुद की आहुति देना है
लोगों के मन की ज़ंग लगी ज़ंजीरों में जकड़े रहना है।
कीर्ति सिंह गौड़
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